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द्विषष्टितमं पर्व
सर्वसङ्गपरित्यागाद्यत्र यान्त्यङ्गिनः शिवम् | तत्त्वधर्मकथा सा स्यानाम्ना धर्मकथापरा ॥ १४ ॥ एवं पृथग्विनिर्दिश्य वक्त्रादित्रयलक्षणम् । अतः परं प्रवक्ष्यामि शान्तीशचरितं महत् ॥ १५ ॥ अथास्य द्वीपनाथस्य जम्बूद्वीपमहीपतेः । लवणाम्भोधिनीलाम्भो लसद्विपुलवाससः ॥ १६ ॥ वक्त्रलीलां दधद्राष्टमभीष्टं भरताह्वयम् । षट्खण्डमण्डितं वाद्धिहिमवन्मध्यसंश्रितम् ॥ १७ ॥ भोगभूभूतभोगादिर्दशाङ्गश्वक्रिणामपि । तत्र तीर्थकृतां वैश्यं सिद्धिश्वाघातिसंक्षयात् ॥ १८ ॥ तस्मारनाकलोकाच्च वरिष्ठं वर्ण्यते बुधैः । ऐरावतसमं वृद्धिहानिभ्यां परिवर्तनात् ॥ १९ ॥ मध्ये तस्य गिरिर्भाति भरतार्द्धविभागकृत् । पूर्वापरायतस्तुङ्गो यशोराशिरिवोज्ज्वलः ॥ २० ॥ स्वर्गलोकजयाज्जाततोषाया वसुधास्त्रियः । पुब्जीभूतः प्रहासो वा राजते राजताचलः ॥ २१ ॥ सफला सर्वदा वृष्टिर्ममोपरि न जातुचित् । युष्माकमिति शैलेन्द्रान् हसतीव स्वतेजसा ॥ २२ ॥ चलस्वभावे कुटिले जलाये जलधिप्रिये । २ गुहास्यादिति नद्यौ योऽवमीदिति जुगुप्सया ॥ २३॥ देवविद्याधरैः सेव्यः सदा स्वाश्रयवर्तिभिः । सर्वेन्द्रियसुखस्थानमेष चक्रिणमन्वगात् ॥ २४ ॥ अपाच्यां चक्रबालान्तं पूःश्रेण्यां रथनूपुरम् | सबलाकमिव व्योम कुर्वती तत्र केतुभिः ॥ २५ ॥ वेष्टिता रत्नशालेन या पयोधरचुम्बिना । रत्नवेदिकयेवेयं जम्बूद्वीपवसुन्धरा ॥ २६ ॥ वर्द्धन्ते यत्र धर्मार्थकामाः संहर्षणादिव । यस्यां दरिद्रशब्दस्य बहिरङ्गार्थनिहुतिः ॥ २७ ॥
ग्रहका व्याग कर मोक्ष प्राप्त करते हों वह तत्त्वधर्म कथा कहलाती है इसका दूसरा नाम धर्मकथा भी है ।। -११-१४ ।। इस प्रसार वक्ता, श्रोता और धर्मकथाके पृथक् पृथक् लक्षण कहे । अब इसके आगे शान्तिनाथ भगवान्का विस्तृत चरित्र कहता हूँ ॥ १५ ॥
अथानन्तर - जो समस्त द्वीपोंका स्वामी है और लवणसमुद्रका नीला जल ही जिसके बड़े शोभायमान वस्त्र हैं ऐसे जम्बूद्वीपरूपी महाराजके मुखकी शोभाको धारण करनेवाला, छह खण्डों से सुशोभित, लवणसमुद्र तथा हिमवान् पर्वतके मध्य में स्थित भरत नामका एक अभीष्ट क्षेत्र है ।। १६-१७ ।। वहाँ भोगभूमिमें उत्पन्न होने वाले भोगोंको आदि लेकर चक्रवर्ती दश प्रकारके भोग, तीर्थकरों का ऐश्वर्य और अघातिया कर्मोंके भयसे प्रकट होनेवाली सिद्धि-मुक्ति भी प्राप्त होती है इसलिए विद्वान् लोग उसे स्वर्गलोक से भी श्रेष्ठ कहते हैं । उस क्षेत्र में ऐरावत क्षेत्रके समान वृद्धि और ह्रासके द्वारा परिवर्तन होता रहता है ।। १८ - १६ ।। उसके ठीक बीचमें भरत क्षेत्रका आधा विभाग करनेवाला, पूर्वसे पश्चिम तक लम्बा तथा ऊँचा विजयार्ध पर्वत सुशोभित होता है जो कि उज्ज्वल यश समूहके समान जान पड़ता है ॥ २० ॥ अथवा चाँदीका बना हुआ वह विजयार्धपर्वत ऐसा जान पड़ता है कि स्वर्ग लोकको जीतनेसे जिसे संतोष उत्पन्न हुआ है ऐसी पृथिवी रूपी स्त्रीका इकट्ठा हुआ मानो हास्य ही हो ।। २१ ।। हमारे ऊपर पड़ी हुई वृष्टि सदा सफल होती है और तुम लोगोंके ऊपर पड़ी हुई वृष्टि कभी सफल नहीं होती इस प्रकार वह पर्वत अपने तेजसे सुमेरु पर्वतों की मानो हँसी ही करता रहता है ||२२|| ये नदियाँ चञ्चल स्वभाववाली हैं, कुटिल हैं, जलसे ( पक्षमें जड़-खाँसे) आढ्य - सहित हैं, और जलधि - समुद्र ( पक्ष में जबधि - मूर्ख) को प्रिय हैं इसलिए घृणासे ही मानो उसने गङ्गा-सिन्धु इन दो नदियोंको अपने गुहारूपी मुखसे वमन कर दिया था ।। २३ ।। वह पर्वत चक्रवर्तीका अनुकरण करता था क्योंकि जिस प्रकार चक्रवर्ती अपने आश्रय में रहनेवाले देव और विद्याधरोंके द्वारा सदा सेवनीय होता है और समस्त इन्द्रियसुखोंका स्थान होता है उसी प्रकार वह पर्वत भी अपने-अपने आश्रय में रहनेवाले देव और विद्याधरोंसे सदा सेवित था और समस्त इन्द्रिय-सुखोंका स्थान था ॥ २४ ॥ उस विजयार्ध पर्वतकी दक्षिण श्रेणी में रथनूपुर चक्रवाल नामकी नगरी है जो अपनी पताकाओं से आकाशको मानो बलाकाओं सहित ही करती रहती है ।। २५ ।। वह मेघोंको चूमने वाले रत्नमय कोटसे घिरी हुई है इसलिए ऐसी जान पड़ती है मानो रत्नकी वेदिकासे घिरी हुई जम्बूद्वीपकी भूमि ही हो ||२६|| वहाँ धर्म, अर्थ और काम ये तीन पुरुषार्थ हर्षसे बढ़ रहे थे और दरिद्र शब्द कहीं बाहरसे भी नहीं १ वा ऐश्यं ऐश्वर्यम् । २ गृहास्यादिति ल० । ३ स्वर्गलोक ० ।
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