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एकषष्टितमं पर्व
त्रिकालयोगवीरासनैकपादिभाषितः । उसरैश्च गुणनित्यं यथायोग्य समाचरन् ॥११॥ क्षमावान् क्षमाविभागोवा वारि वा श्रिततापनुत् । गिरीश इव नि:कम्पो निःसङ्गः परमाणुवत् ॥१२२॥ निर्लेपोऽम्बुदमार्गो' वा गम्भीरो वाऽऽपगापतिः। शशीव सर्वसंहादी भानुमानिव उभास्वरः ॥ १२३॥ बाह्याभ्यन्तरसंशुद्धः सुधौतकलधौतवत् । आदर्शवत्समादर्शी सङ्कोची कूर्मसन्निभः ॥ १२४ ॥
अहिर्वा स्वाकृतावासः करीवाशब्दयानकः । शृगालवत्पुरालोकी स शूरो राजसिंहवत् ॥ १२५॥ सदा विनिद्रो मृगवत्सोढाशेषपरीषहः । उपसर्गसहो विक्रियाधुक्तविविधद्धिकः ॥ १२६ ॥ क्षपकश्रेणिमारुह्य ध्यानद्वयसुसाधनः । घातिकर्माणि निर्धूय कैवल्यमुदपादयन् ॥ १२ ॥ पुनविहृत्य सद्धर्मदेशनाद्विषयान् बहून् । विनेयान् मुक्तिसन्मार्ग दुर्ग दुर्भार्गवतिनाम् ॥ १२८ ॥ पश्चादन्तर्मुहर्तायुर्योग रुवा विभेदकम् । सर्वकर्मक्षयावाप्यमावापन्मोक्षमक्षयम् ॥ १२९ ॥
वसन्ततिलका जित्वा जिनेन्द्रवपुषेन्द्रसनत्कुमार
माक्रम्य विक्रमवलेन दिशां च चक्रम् । चक्रेण धर्मविहितेन हताघचक्रो
दिश्यात्स वः श्रियमिहाशु सनत्कुमारः ॥ १३०॥ --इत्याचे भगवद्गुणभद्राचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रहे धर्मतीर्थकर-सुदर्शन-पुरुषसिंहमधु
क्रीडमघवत्सनत्कुमारपुराणं परिसमाप्तम् एकपष्टितमं पर्व ॥६॥
तीन कालमें योगधारण करना, वीरासन आदि आसन लगाना तथा एक करवटसे सोना
आदि शास्त्रोंमें कहे हुए उत्तरगुणोंका निरन्तर यथायोग्य आचरण करते थे॥ १२१ ।। वे पृथिवीके समान क्षमाके धारक थे, पानीके समान आश्रित मनुष्योंके सन्तापको दूर करते थे, पर्वतके समान अकम्प थे, परमाणुके समान निःसङ्ग थे, आकाशके समान निर्लेप थे, समुद्रके समान गम्भीर थे, चन्द्रमाके समान सबको आह्लादित करते थे, सूर्यके समान देदीप्यमान थे, तपाये हुए सुवर्णके समान भीतर-बाहर शुद्ध थे, दर्पणके समान समदर्शी थे, कछुवेके समान सङ्कोची थे, साँपके समान कहीं अपना स्थिर निवास नहीं बनाते थे, हाथीके समान चुपचाप गमन करते थे, शृगालके समान सामने देखते थे, उत्तम सिंहके समान शूरवीर थे और हरिणके समान सदा विनिद्र-जागरूक रहते थे। उन्होंने सब परिषह जीत लिये थे, सब उपसर्ग सह लिये थे और विक्रिया आदि अनेक ऋद्धियां प्राप्त कर ली थीं ॥ १२२-१२६ ॥ उन्होंने क्षपकश्रेणीपर आरूढ़ होकर दो शुक्लध्यानोंके द्वारा घातिया कर्मोको नष्टकर केवलज्ञान उत्पन्न किया था ॥ १२७ ॥ तदनन्तर अनेक देशोंमें विहारकर अनेक भव्य जीवोंको समीचीन धर्मका उपदेश दिया और कुमार्गमें चलनेवाले मनुष्योंके लिए दुर्गम मोक्षका समीचीन मार्ग सबको बतलाया ।। १२८ ।। जब उनकी आयु अन्तर्मुहूर्तकी रह गई तब तीनों योगोंका निरोध कर उन्होंने समस्त कर्मों के क्षयसे प्राप्त होनेवाला अविनाशी मोक्षपद प्राप्त किया ।। १२६ ।। जिन्होंने अपने जिनेन्द्रके समान शरीरसे सनत्कुमार इन्द्रको जीत लिया, जिन्होंने अपने पराक्रमके बलसे दिशाओंके समूह पर आक्रमण किया और धर्मचक्र द्वारा पापोंका समूह नष्ट किया वे श्रीसनत्कुमार भगवान् तुम सबके लिए शीघ्र ही लक्ष्मी प्रदान करें॥ १३०॥ इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध. भगवद्गुणभद्राचार्य विरचित त्रिषष्टिलक्षण महापुराणके संग्रहमें तीर्थकर, सुदर्शन बलभद्र, पुरुषसिंह नारायण, मधुक्रीड़ प्रतिनारायण, मघवा और
सनत्कुमार चक्रवर्ती के पुराणका वर्णन करनेवाला इकसठवाँ पर्व समाप्त हुआ।
१ गिरीन्द्र क०, घ० । २ श्राकाश इव । ३ भास्करः ल०। ४ अहिर्वा स्वकृता ल० ।
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