________________
११८
महापुराणे उत्तरपुराणम् बुद्ध्वा ततः स निर्यातो द्वीपेऽस्मिन् विजये पुरे। ऐरावते महत्यासीदयोध्या तदधीश्वरः ॥ २८२ ॥ श्रीवर्माऽस्य सुसीमाख्या देवी तस्याः सुतोऽभवत् । 'श्रीधर्मासावनन्ताख्यमुनेरादाय संयमम् ॥२८॥ ब्रह्मकल्पेऽभवद् देवो दिव्याष्टगुणभूषितः । सर्वार्थसिद्धिजः संजयन्तो वज्रायुधोऽभवत् ॥ २८४ ॥ ब्रह्मकल्पादिहागत्य त्वं जयन्तो निदानतः । मोहाद्विलुप्तसम्यक्त्वोऽजनिष्ट नागनायकः ॥ २८५॥ प्राक्तनो नारकः प्रान्तपृथिवीतो विनिर्गतः । जघन्यायुरहिर्भूत्वा तृतीयां पृथिवीं गतः ॥ २८६ ॥ ततो निर्गत्य तिर्यक्षु असेषु स्थावरेषु च । भ्रान्त्वाऽस्मिन् भरते भूतरमणाख्यवनान्तरे ॥ २८७ ॥ ऐरावतीनदीतीरे मृगशृङ्गसुतोऽभवत् । गोशृङ्गतापसाधीशः शसिकायां विरक्तधीः ॥ २८८॥ स पञ्चाग्नितपः कुर्वन् दिव्यादितिलकाधिपम् । खगं वीक्ष्यांशुमालाख्यं निदानमकरोत्कुधीः ॥ २८९ ॥ मृत्वाऽत्र खगशैलोदश्रेण्यां गगनवल्लभे । वज्रदंष्ट खगेशस्य प्रिया विद्युत्प्रभा तयोः ॥ २९ ॥ विद्युइंष्टः सुतो जातः सोऽयं वैरानुबन्धतः । बद्ध्वा कर्म चिरं दुःखमापदाप्स्यति चापरम् ॥२९॥ एवं कर्मवशाजन्तुः संसारे परिवर्तते । पिता पुत्रः सुतो माता माता भ्राता स च स्वसा ॥ २९२ ॥ स्वसा नप्ता भवेत्का वा बन्धुसम्बन्धसंस्थितिः । कस्य को नापकर्ताऽत्र नोपकर्ता च कस्य कः ॥ २९३ ॥ तस्माद्वैरानुबन्धेन मा कृथाः पापबन्धनम् । मुञ्च वैरं महानाग ! विद्युहष्टश्च मुच्यताम् ॥ २९४ ॥ इति तहेववाक्सौधवृष्ट्या सन्तपितोऽहिराट् । देवाहं त्वत्प्रसादेन सद्धर्म श्रद्दधे स्म भोः ॥ २९५ ॥ किन्तु विद्याबलादेष विद्य ईष्टोऽधमाचरत् । तस्मादस्यान्वयस्यैव महाविद्यां छिनम्यहम् ॥ २९६ ॥ इत्याहैतद्वचः श्रुत्वा देवो मदनुरोधतः । त्वया नैतद्विधातव्यमित्याख्यत्फणिनां पतिम् ॥ २९७ ॥
रहनेवाले विभीषणको सम्बोधा था ॥२८१ ।। वह प्रतिबोधको प्राप्त हुआ और वहाँ से निकलकर इसी जम्बूद्वीपके ऐरावत क्षेत्रकी अयोध्या नगरीके राजा श्रीवर्माकी सुसीमा देवीके श्रीधर्मा नामका पुत्र हुआ। और वयस्क होने पर अनन्त नामक मुनिराजसे संयम ग्रहण कर ब्रह्मस्वर्गमें आठ दिव्य गुणोंसे विभूषित देव हुआ। वज्रायुधका जीव जो सर्वार्थसिद्धिमें अहमिन्द्र हुआ था वहाँसे आकर संजयन्त हुआ॥२८२-२८४ ॥ श्रीधर्माका जीव ब्रह्मस्वर्गसे आकर तू जयन्त हुआ था और निदान बाँधकर मोह-कर्मके उदयसे धरणीन्द्र हुआ ॥२८५ ॥ सत्यघोषका जीव सातवीं पृथिवीसे निकल कर जघन्य आयुका धारक साँप हुआ और फिर तीसरे नरक गया ।। २८६ ।। वहाँ से निकल कर त्रस स्थावर रूप तिर्यंच गतिमें भ्रमण करता रहा। एक बार भूतरमण नामक वनके मध्यमें एराक्ती नदीके किनारे गोशृङ्ग नामक तापसकी शकिका नामक स्त्रीके मृगशृङ्ग नामका पुत्र हुआ। वह विरक्त होकर पश्चाग्नि तप कर रहा था कि इतनेमें वहाँ से दिव्यतिलक नगरका राजा अंशुमाल नामका विद्याधर निकला उसे देखकर उस । निदान बन्ध किया ॥२८७-२८६ ।। अन्तमें मर कर इसी भरतक्षेत्रके विजयाध पर्वतकी उत्तर श्रेणी-सम्बन्धी गगनवल्लभ नगरके राजा वनदंष्ट्र विद्याधरको विद्युत्प्रभा रानीके विद्युदंष्ट्र नामका पुत्र हुअा। इसने पूर्व वैरके संस्कारसे कर्मबंध कर चिरकाल तक दुःख पाये और आगे भी पावेगा ।। २६०-२६१ ।। इस प्रकार कर्मके वश होकर यह जीव परिवर्तन करता रहता है । पिता पुत्र हो जाता है, पुत्र माता हो जाता है, माता भाई हो जाती है, भाई बहन हो जाता है और बहन नाती हो जाती है सो ठीक ही है क्योंकि इस संसारमें बन्धुजनोंके सम्बन्धकी स्थिरता ही क्या है ? इस संसारमें किसने किसका अपकार नहीं किया और किसने किसका उपकार नहीं किया ? इसलिए वैर बाँधकर पापका बन्ध मत करो। हे नागराज-हे धरणेन्द्र ! वैर छोड़ो और विद्युदंष्ट्रको भी छोड़ दो ।।२६२-२६४ ॥ इस प्रकार उस देवके वचनरूप अमृतकी वर्षासे धरणेन्द्र बहुत ही संतुष्ट हुआ। वह कहने लगा कि हे देव ! तुम्हारे प्रसादसे आज मैं समीचीन धर्मका श्रद्धान करता हूँ ॥ २६५ ।। किन्तु इस विद्युदंष्टने जो यह पापका आचरण किया है वह विद्याके बलसे ही किया है इसलिए मैं इसकी तथा इसके वंशकी महाविद्याको छीन लेता हूँ' यह कहा ॥ २६६ ।। उसके वचन सुनकर वह देव धरणेन्द्रसे फिर कहने लगा कि आपको
१ श्रीधर्मास्य क०, ग०, ५०। श्रीधावा सा ल., ख.।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org