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एकषष्टितमं पर्व
धर्मे यस्मिन् समुद्भता धर्मा दश सुनिर्मलाः । स धर्मः शर्म मे दद्यादधर्ममपहत्य नः ॥१॥ धातकीखण्डप्राग्भागे प्राग्विदेहे सरितटे । दक्षिणे वत्सविषये सुसीमानगरं महत् ॥ २॥ पतिर्दशरथस्तस्य प्रज्ञाविक्रमदैववान् । स्ववशीकृतसारिः निर्व्यायामः समे स्थितः ॥३॥ सुखानि धर्मसाराणि प्रजापालनलालसः । बन्धुभिश्च सुहृद्भिश्व सह विश्रब्धमन्वभूत् ॥ ४॥ माधवे शुक्लपक्षान्ते सम्प्रवृत्तजनोत्सवे । चन्द्रोपरागमालोक्य सद्यो निविण्णमानसः ॥ ५॥ कान्तः कुवलयालादी कलाभिः परिपूर्णवान् । ईशस्यापि चेदीहगवस्थाऽन्यस्य का गतिः ॥ ६॥ इति मत्वा सुते राज्यभार कृत्वा महारथे । नैःसङ्ग्याल्लाघवोपेतमङ्गीकृत्य स संयमम् ॥ ७॥ एकादशाङ्गधारी सन् भावितद्वयष्टकारणः । निबद्धतीर्थकृत्पुण्यः स्वाराध्यान्ते विशुद्धीः ॥८॥ त्रयस्त्रिंशत्समुद्रायुः एकहस्ततनूच्छृितिः । पञ्चरन्ध्रचतुर्मानदिनैरुच्छ्वासवान् मनाक ॥ ९॥ लोकनाल्यन्तरव्यापिविमलावधिबोधनः । तत्क्षेत्रविक्रियातेजोबलसम्पत्समन्वितः ॥१०॥ त्रिसहस्राधिकत्रिंशत्सहस्राब्दैः समाहरन् । मुहूर्ते मानसाहारं शुक्कुलेश्याद्वयश्चिरम् ॥ ११ ॥ सर्वार्थसिद्धौ सत्सौख्यं निःप्रवीचारमन्वभूत् । ततो नृलोकमेतस्मिन् पुण्यभाज्यागमिष्यति ॥ १२॥ द्वीपेऽस्मिन्भारते रत्नपुराधीशो महीपतेः । कुरुवंशस्य गोत्रेण काश्यपस्य महौजसः॥ १३ ॥ देव्या भानुमहाराजसंज्ञस्य विपुलश्रियः। सुप्रभायाः सुरानीतवसुधारादिसम्पदः ॥१४॥
जिन धर्मनाथ भगवानसे अत्यन्त निर्मल उत्तमक्षमा आदि दश धर्म उत्पन्न हुए वे धर्मनाथ भगवान हमलोगोंका अधर्म दूर कर हमारे लिए सुख प्रदान करें ॥१॥ पूर्व धातकीखण्ड द्वीपके पूवेविदेह क्षेत्रमें नदीक दक्षिण तट पर एक वत्स नामका देश है। उसमें सुसीमा नार है ॥२॥ वहाँ राजा दशरथ राज्य करता था, वह बुद्धि, बल और भाग्य तीनोंसे सहित था। चूँकि उसने समस्त शत्रु अपने वश कर लिये थे इसलिए युद्ध आदिके उद्योगसे रहित होकर वह शान्ति रहता था ॥३॥ प्रजाकी रक्षा करनेमें सदा उसकी इच्छा रहती थी और वह बन्धुओं तथा मित्रोंके साथ निश्चिन्ततापूर्वक धर्म-प्रधान सुखका उपभोग करता था ॥४॥ एक बार वैशाख शुक्ल पूर्णिमा के दिन सबलोग उत्सव मना रहे थे उसी समय चन्द्र ग्रहण पड़ा उसे देखकर राजा दशरथका मन भोगोंसे एकदम उदास हो गया ॥५॥ यह चन्द्रमा सुन्दर है, कुवलयों-नीलकमलों ( पक्षमेंमहीमण्डल ) को आनन्दित करनेवाला है और कलाओंसे परिपूर्ण है। जब इसकी भी ऐसी अवस्था हुई है तब अन्य पुरुषकी क्या अवस्था होगी ॥६॥ऐसा मानकर उसने महारथ नामक पुत्रके लिए राज्यभार सौंपा और स्वयं परिग्रहरहित होनेसे भारहीन होकर संयम धारण कर लिया ।। ७ ।। उसने ग्यारह अङ्गोंका अध्ययन कर सोलह कारण-भावनाओंका चिन्तवन किया, तीर्थकर नामक पुण्य प्रकृतिका बन्ध किया और आयुके अन्तमें समाधिमरण कर अपनी बुद्धिको निर्मल बनाया
। अब वह सर्वार्थसिद्धिमें अहमिन्द्र हुआ, तैंतीस सागर उसकी स्थिति थी, एक हाथ ऊँचा उसका शरीर था, चार सौ निन्यानवें दिन अथवा साढ़े सोलह माहमें एक बार कुछ श्वास लेता था ॥६॥ लोक नाड़ीके अन्त तक उसके निर्मल अवधिज्ञानका विषय था, उतनी ही दूर तक फलनेवाली विक्रिया तेज तथा बलरूप सम्पत्तिसे सहित था ।। १०॥ तीस हजार वर्षमें एक बार मानसिक
आहार लेता था, द्रव्य औरभाव सम्बन्धी दोनों शुक्ललेश्याओंसे युक्त था॥११॥ इसप्रकार वह सर्वार्थसिद्धिमें प्रवीचार रहित उत्तम सुखका अनुभव करता था। वह पुण्यशाली जब वहाँ से चयकर मनुष्य लोकमें जन्म लेनेके लिए तत्पर हुआ । १२ ।। तब इस जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रमें एक रत्नपुर नामका नगर था उसमें कुरुवंशी काश्यपगोत्री महातेजस्वी और महालक्ष्मीसम्पन्न महाराज भानु राज्य करते थे उनकी महादेवीका नाम सुप्रभा था, देवोंने रत्नवृष्टि आदि सम्पदाओंके द्वारा उसका सम्मान
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