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महापुराणे उत्तरपुराणम् भस्मिन्नेवाभवत्तीय बाझः श्रीमान् सुदर्शनः । केशवः सिंहशम्दान्तपुरुषः परिषदलः ॥ ५॥ सयोराख्यानक वक्ष्ये भवनयसमाश्रयम् । इह राजगृहे राजा सुमित्रो नाम गर्वितः ॥ ५७ ॥ 'महामल्लो बहन जित्वा लब्धपूज: परीक्षकैः । तृणायमन्यमानोऽन्यानमाचद् दुष्टदन्तिवत् ॥ ५० ॥ कदाचिद्राजसिंहाख्यः महीनाथो मदोद्धृतः । तदर्पशातनायागात्ता पुरी मल्लयुद्धवित् ॥ ५९॥ सुमित्रस्तेन रहस्थो निजितः सुचिरायथा । उत्खातदन्तदन्तीव तदास्यादतिदुःखितः ॥६॥ मानभनेन भन्नः समसौ राज्यभराक्षमः । नियुक्तवान् सुतं राज्ये मानप्राणा हिमानिनः ॥६॥ कृष्णाचार्य समासाद्य श्रुत्वा धर्म यथोदितम् । प्रवनाजातिनिर्विण्णस्तदि योग्यं मनस्विनाम् ॥ १२॥ क्रमेणोघं तपः कुर्वन् सिंहनिःक्रीडितादिकम् । स्वपराजयसंक्लेशादिति प्रान्ते व्यचिन्तयत् ॥१५॥ फलं चेदस्ति चर्यायास्तया सोऽन्यत्र जन्मनि । मम स्तां विद्विषो जेतुं महाबलपराक्रमौ ॥१४॥ तथैव संन्यस्याभूष माहेन्द्र सप्तसागर-। स्थितिर्देवविरं भोगान् भुमानः सुखमास्थितः ॥१५॥ द्वीपेऽस्मिन् मन्दरप्राचि "वीतशोकापुरीपतिः । नरादिवृषभो राजाऽजनि जातमहोदयः ॥१६॥ भुक्त्वा कोपद्वयापेतं राज्यमूर्जितसौख्यभाक् । सयः सातनिर्वेदोऽस्यजइमबरान्तिके॥१७॥ स घोरतपसा दीर्घ गमयित्वाऽऽयुरात्मनः । सहस्रारं जगामाष्टदशसागरसंस्थितिः॥१८॥ फळ 'स्वानिमिषत्वस्य प्राप्यानारतलोकनात् । प्राणप्रियाणां पर्यन्ते शान्तचेता निजायुषः ॥१९॥ अस्मिन् खगपुराधीशसिंहसेनमहीपतेः । इक्ष्वाकोविजयायान तनूजोऽभूत्सुदर्शनः ॥ ७॥
अथानन्तर इन्हीं धर्मनाथ भगवान् के तीर्थमें श्रीमान सुदर्शन नामका बलभद्र तथा सभामें सबसे बलवान् पुरुषसिंह नामका नारायण हुअा ॥५६॥ अतः यहाँ उनका तीन भवका चरित कहता हूं। इसी राजगृह नगरमें राजा सुमित्र राज्य करता था, वह बड़ा अभिमानी था, बड़ा मल्ल था, उसने बहुत मल्लोंको जीत लिया था इसलिए परीक्षक लोग उनकी पूजा किया करते थे-उसे पूज्य मानते थे, वह सदा दूसरोंको तृणके समान तुच्छ मानता था, और दुष्ट हाथीके समान मदोन्मत्त था॥५७-५८ ॥ किसी समय मदसे उद्धत तथा मल्लयुद्धको जानने वाला राजसिंह नामका राजा उसका गर्व शान्त करनेके लिए राजगृह नगरीमें पाया ॥५६॥ उसने बहुत देर तक युद्ध करने के बाद रङ्गभूमिमें स्थित राजा सुमित्र को हरा दिया जिससे वह दाँत उखाड़े हुए हाथीके समान बहुत दुःखी हुआ। ६० ।। मान भङ्ग होनेसे उसका हृदय एकदम टूट गया, वह राज्यका भार धारण करने में समर्थ नहीं रहा अतः उसने राज्य पर पुत्रको नियुक्त कर दिया सो ठीक ही है; क्योंकि मान ही मानियोंके प्राण हैं ॥ ६१॥ निर्वेद भरा हुआ राजा सुमित्र कृष्णाचार्यके पास पहुंचा और उनके द्वारा कहे हुए धर्मोपदेशको सुनकर दीक्षित हो गया सो ठीक ही है क्योंकि मनस्वी मनुष्योंको यही योग्य है ।। ६२ । यद्यपि उसने क्रम-क्रमसे !सिंहनिष्क्रीडित आदि कठिन तप किये तो भी उसके हृदय में अपने पराजयका संक्लेश बना रहा अतः अन्तमें उसने ऐसा विचार किया कि यदि मेरी इस तपश्चर्याका फल अन्य जन्ममें प्राप्त हो तो मुझे एसा महान् बल और पराक्रम प्राप्त होवे जिससे मैं शत्रुओंको जीत सकूँ।। ६३-६४ ॥ ऐसा निदान कर वह संन्याससे मरा और माहेन्द्र स्वर्गमें सात सागरकी स्थिति वाला देव हुआ। वह वहाँ भोगोंको भोगता हुआचिरकाल तक सुखसे स्थित रहा ॥६५॥ तदनन्तर इसी जम्बूद्वीपमें मेरुपर्वतके पूर्वकी ओर वीतशोकापुरी नामकी नगरी है उसमें ऐश्वर्यशाली नरवृषभ नामका राजा राज्य करता था। उसने बाह्याभ्यन्तर प्रकृतिके कोपसे रहित राज्य भोगा, बहुत भारी सुख भोगे और अन्तमें विरक्त होकर समस्त राज्य त्याग दिया और दमवर मुनिराजके पास दिगम्बर दीक्षा धारण कर ली ॥६६-६७ ॥ अपनी विशाल मायु कठिन तपसे बिताकर वह सहस्रार स्वर्गमें अठारह सागरकी स्थितिवाला देव हुआ।। ६८।। प्राणप्रिय देवाङ्गनाओंको निरन्तर देखनेसे उसने अपने टिपकार रहित नेत्रोंका फल प्राप्त किया
१महाबलो ग.। १ यथोचितम् ख०।३ समस्तान् ख०।४ पराक्रमे ख.।५हतशोकपुरीपतिः गा। संस्थितः क,०७फलं स्वनिमिषत्वस्य खः।
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