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एकषष्टितमं पर्व
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अम्विकायां सुतोऽस्यैव सुमित्रः केशवोऽभवत् । पञ्चाब्धिधनुरुत्सेधौ दशलक्षासमायुषौ ॥ १ ॥ परस्परानुकूल्येन मतिरूपबलान्वितौ । परानाक्रम्य सर्वान् स्वान् रञ्जयामासतुर्गुणैः ॥ ७२ ॥ अविभक्तापि दोषाय भुज्यमाना तयोरभूत् । न लक्ष्मीः शुद्धचित्तानां शुद्धथै निखिलमप्यलम् ॥ ७३ ॥ अथाभूगारते क्षेत्रे विषये कुरुजाङ्गले । हास्तिनाख्यपुराधीशो मधुक्रीडो महीपतिः ॥ ७४ ॥ राजसिंहचरो लड्डिताखिलारातिसंहतिः । असहस्तौ समुद्यन्तौ तेजसा बलकेशवौ ॥ ७५ ॥ करं पराय॑रत्नानि याचित्वा प्राहिणोद्धली। दण्डगर्भाभिधानाभिशालिनं सचिवाग्रिमम् ॥ ७६ ॥ तद्वचःश्रवणात्तौ च गजकण्ठरवतेः। कण्ठीरवौ वा संक्रद्धौ रुध्वाऽहतितेजसौ ॥ ७७ ॥ क्रीडितुं याचते मूढो गर्भव्यालं जडः करम् । समीपवर्ती चेत्तस्य समवर्ते तु दीयते ॥ ७८॥ इत्युक्तवन्तौ तत्कोपकठोरोक्त्या स सत्वरम् । गत्वा तत्कार्यपर्यायमधुक्रीडमजिज्ञपत् ॥ ७९ ॥ सोऽपि तदुर्वचः श्रुत्वा कोपारुणितविग्रहः । विग्रहाय सहैताभ्यां प्रतस्थे बहुसाधनः ॥ ८॥ अभिगम्य तमाक्रम्य युद्ध्वा युद्धविशारदः । अच्छिनत्तस्य चक्रेण शिरः सद्यः स केशवः ॥ ८१ ॥ तौ त्रिखण्डाधिपत्येन लक्ष्मीमनुबभूवतुः । अवधिस्थानमापनः केशवो जीवितावधौ ॥ ८२ ॥ हलायुधोऽपि तच्छोकाद्धर्मतीर्थकरं श्रितः । प्रव्रज्य प्रोद्धुताधौधः प्राप्नोति स्म परं पदम् ॥ ८३॥
मालिनी प्रतिहतपरसैन्यौ मानशोण्डौ प्रचण्डौ
फलितसुकृतसारौ तावखण्डत्रिखण्डौ। और आयुके अन्तमें शान्तचित्त होकर इसी जम्बूद्वीपके खगपुर नगरके इक्ष्वाकुवंशी राजा सिंहसेनकी विजया रानीसे सुदर्शन नामका पुत्र हुआ॥ ६९-७० ।। इसी राजाकी अम्बिका नामकी दूसरी रानीके सुमित्रका जीव नारायण हुआ। वे दोनों भाई पैंतालीस धनुष ऊँचे थे और दश लाख वर्षकी आयुके धारक थे ।। ७१ ॥ एक दूसरेके अनुकूल बुद्धि, रूप और बलसे सहित उन दोनों भाइयोंने समस्त शत्रुओं पर आक्रमण कर आत्मीय लोगोंको अपने गुणोंसे अनुरक्त बनाया था ॥ ७२ ।। यद्यपि उन दोनोंकी लक्ष्मी अविभक्त थी-परस्पर बाँटी नहीं गई थी तो भी उनके लिए कोई दोष उत्पन्न नहीं करती थी सो ठीक ही है क्योंकि जिनका चित्त शुद्ध है उनके लिए सभी वस्तुएँ शुद्धताके लिए ही होती हैं ।। ७३ ॥
अथानन्तर इसी भरतक्षेत्रके कुरुजांगल देशमें एक हस्तिनापुर नामका नगर है उसमें मधुक्रीड़ नामका राजा राज्य करता था। वह सुमित्रको जीतनेवाले राजसिंहका जीव था। उसने समस्त शत्रुओं के समूहको जीत लिया था, वह तेजसे बढ़ते हुए बलभद्र और नारायणको नहीं सह सका इसलिए उस बलवानने कर-स्वरूप अनेकों श्रेष्ठ रत्न माँगनेके लिए दण्डगर्भ नामका प्रधानमंत्री भेजा ॥७४७६ ॥ जिस प्रकार हाथीके कण्ठका शब्द सुनकर सिंह क्रुद्ध हो जाते हैं उसी प्रकार सूर्यके समान तेजके धारक दोनों भाई प्रधानमंत्रीके शब्द सुनकर क्रुद्ध हो उठे ॥७७ ॥ और कहने लगे कि वह मूर्ख खेलनेके लिए साँपों भरा हुआ कर माँगता है सो यदि वह पास आया तो उसके लिए वह कर अवश्य दिया जावेगा ॥७८ ।। इस प्रकार क्रोधसे वे दोनों भाई कठोर शब्द कहने लगे और उस मंत्रीने शीघ्र ही जाकर राजा मधुक्रीड़को इसकी खबर दी ॥७६ ॥ राजा मधुक्रीड़ भी उनके दुर्वचन सुनकर क्रोधसे लाल शरीर हो गया और उनके साथ युद्ध करनेके लिए बहुत बड़ी सेना लेकर चला ।। ८०॥ युद्ध करनेमें चतुर नारायण भी उसके सामने आया, उसपर आक्रमण किया, चिरकाल तक उसके साथ युद्ध किया और अन्तमें उसीके चलाये हुए चक्रसे शीघ्र ही उसका शिर काट डाला ॥८१॥ दोनों भाई तीन खण्डके अधीश्वर बनकर राज्यलक्ष्मीका उपभोग करते रहे। उनमें नारायण, आयुका अन्त होने पर सातवें नरक गया ॥२॥ उसके शोकसे बल नाथ तीर्थकरकी शरणमें जाकर दीक्षा ले ली और पापोंके समूहको नष्ट कर परम पद प्राप्त किया
१ विजये ल• १२ समुद्योती ख•।
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