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एकषष्टितमं पर्व
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अरिष्टसेनाद्यनलयुगमानगणाधिपः । शून्यद्वयनवप्रोक्तसर्वपूर्वधरावृतः ॥ ४४ ॥ शून्यद्वयद्धिशून्याब्धिमितशिक्षकलक्षितः । षट्शतत्रिसहस्रोक्तत्रिविधावधिलोचनः ॥ ४५ ॥ शून्यद्वयेन्द्रियाम्भोधिप्रोक्तकेवलवीक्षणः । शून्यत्रिकमुनिज्ञातविक्रियद्धिविभूषितः ॥ ४६॥ केवलज्ञानिमानोक्तमनःपर्ययविद्वृतः । खद्वयाष्टद्विविज्ञातवादिवृन्दाभिवन्दितः ॥ ४७ ॥ पिण्डीकृतचतुःषष्टिसहस्रमुनिसाधनः । खखाब्धिपक्षषट्प्रोक्तसुव्रताद्यायिकाचिंतः ॥ ४८ ॥ द्विलक्षश्रावकोपेतो द्विगुणश्राविकावृतः । पूर्वोक्तदेवसन्दोहतिर्यक्सङ्ख्यातसंश्रितः ॥ ४९ ॥ इति द्वादशभेदोक्तगणसम्पत्समचिंतः । धर्मो धर्ममुपादिक्षद्धर्मध्वजविराजितः ॥ ५० ॥ विहारमन्ते संहृत्य सम्मेदे गिरिसत्तमे । मासमेकमयोगः सन्नवाष्टशतसंयतैः ॥ ५१ ॥ शुचिशुक्लचतुर्थ्यन्त रात्रौ ध्यातिं पृथग्द्वयीम् । आपूर्य पुष्यनक्षत्रे मोक्षलक्ष्मीमुपागमत् ॥ ५२ ॥ तदामृताशनाधीशाः सहसाऽऽगत्य सर्वतः । कृत्वा निर्वाणकल्याणमवन्दिषत तं जिनम् ॥ ५३ ॥
आर्या निर्जित्य दशरथः स रिपून्नृपोत्याहमिन्द्रतां गत्वा । धर्मः स पातु पापैर्धर्मा युधि यस्य दशरथायन्ते ॥ ५४॥
मालिनी निहतसकलघाती निश्चलानावबोधो
गदितपरमधर्मो धर्मनामा जिनेन्द्रः । त्रितयतनुविनाशा निर्मलः शर्मसारो
दिशतु सुखमनन्तं शान्तसर्वात्मको वः ॥ ५५॥
नक्षत्र में कवलज्ञान प्राप्त किया। देवोंने चतुर्थ कल्याणककी उत्तम पूजा की ॥४२-४३॥ वे अरिष्टसेनको आदि लेकर तैंतालीस गणधरोंके स्वामी थे, नौ सौ ग्यारह पूर्वधारियोंसे आवृत थे, चालीस हजार सात सौ शिक्षकोंसे सहित थे, तीन हजार छह सौ तीन प्रकारके अवधिज्ञानियोंसे युक्त थे, चार हजार पाँच सौ केवलज्ञानी उनके साथ थे, सात हजार विक्रियाऋद्धिके धारक उनकी शोभा बढ़ा रहे थे. चार हजार पाँच सौ मनःपर्ययज्ञानी उन्हें घेरे रहते थे, दो हजार आठ सौ वादियोंके समूह उनकी वन्दना करते थे, इस तरह सब मिलाकर चौंसठ हजार मुनि उनके साथ रहते थे, सुव्रताको आदि लेकर बासठ हजार चार सौ आर्यिकाएँ उनकी पूजा करती थीं, वे दो लाख श्रावकोंसे सहित थे, चार लाख श्राविकाओंसे आवृत थे, असंख्यात देव-देवियों और संख्यात तिर्यञ्चोंसे सेवित थे॥४४-४६।। इस प्रकार बारह सभाओंकी सम्पत्तिसे सहित तथा धर्मकी ध्वजासे सुशोभित भगवान्ने धर्मका उपदेश दिया ॥५०॥ अन्तमें विहार बन्द कर वे पर्वतराज सम्मेदशिखर पर पहुँचे और एक माहका योग निरोध कर आठ सौ नौ मुनियोंके साथ ध्यानारूढ़ हुए। तथा ज्येष्ठशुक्ला चतुर्थीके दिन रात्रिके अन्त भागमें सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती और व्युपरतक्रियानिवर्ती नामक शुक्लध्यानको पूर्ण कर पुष्य नक्षत्रमें मोक्ष-लक्ष्मीको प्राप्त हुए ॥ ५१-५२ ॥ उसी समय सब ओरसे देवोंने आकर निर्वाण कल्याणकका उत्सव किया तथा वन्दना की ।। ५३ ॥ जो पहले भवमें शत्रुओंको जीतनेवाले दशरथ राजा हए, फिर अहमिन्द्रताको प्राप्त हुए तथा जिनके द्वारा कहे हुए दश धर्म पापोंके साथ युद्ध करनेमें दश रथोंके समान आचरण करते हैं वे धर्मनाथ भगवान् तुम सबकी रक्षा करें ॥५४॥ जिन्होंने समस्त घातिया कर्म नष्ट कर दिये हैं, जिनका केवलज्ञान अत्यन्त निश्चल है, जिन्होंने श्रेष्ठ धर्मका प्रतिपादन किया है, जो तीनों शरीरोंके नष्ट हो जानेसे अत्यन्त निर्मल है, जो स्वयं अनन्त सुखसे सम्पन्न है और जिन्होंने समस्त आत्माओंको शान्त कर दिया है ऐसे धर्मनाथ जिनेन्द्र तुम सबके लिए अनन्त सुख प्रदान करें ॥५५॥
१ विवतःल०।२ समन्वितः ल.।३-तुभ्यन्ते ल.। ४ विनाशो क...।
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