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महापुराणे उत्तरपुराणम् धर्मादस्मादवाप्स्यन्ति कारातिनिबर्हणात् । शर्म चेनिमलं भव्याः शर्मास्य किमुवर्ण्यते ॥ २९ ॥ पञ्चलक्षसमाराज्यकालेऽतीते कदाप्यसौ। उल्कापातसमुद्भूतवैराग्यादित्यचिन्तयत् ॥ ३० ।। कथं क कस्माज्जातो मे १किम्मयः कस्य २भाजनम्। किं भविष्यति कायोऽयमिति चिन्तामकुर्वता ॥३॥ दुविंदग्धेन साङ्गत्यमनेन सुचिरं कृतम् । अश्नता दुःखमावयं पापं पापविपाकतः ॥ ३२॥ दुःखमेव सुखं मत्वा दुर्मतिः कर्मचोदितः । शर्म शाश्वतमप्राप्य श्रान्तोऽहं जन्मसन्ततौ ॥ ३३ ॥ बोधादयो गुणाः स्वेऽमी ममैतदविकल्पयन् । रागादिकान् गुणान्मत्वा धिग्मां मतिविपर्यात् ॥ ३४ ॥ स्नेहमोहग्रहग्रस्तो मुहुर्बन्धुधनान्यलम् । पोषयनर्जयन्पापसञ्चयाद् दुर्गतीर्गतः ॥ ३५ ॥ एवमेनं स्वयं बुद्धं मत्वा लौकान्तिकाः सुराः । तुष्टुवुनिष्ठितार्थस्त्वं देवायेत्यातिभक्तिकाः ॥ ३ ॥ सुधर्मनाम्नि स ज्येष्ठे पुत्रे निहितराज्यकः । ४प्राप्तनिष्क्रमणारम्भकल्याणाभिषवोत्सवः ॥ ३७ ॥ शिबिकां नागदत्ताख्यामारुह्य सुरसत्तमैः । सह शालवनोद्यानं गत्वा षष्ठोपवासवान् ॥ ३८ ॥ माघज्योत्स्नात्रयोदश्यामपराहे नृपैः समम् । सहस्रेण स पुष्यः दीक्षां मौक्षी समग्रहीत् ॥ ३९ ॥ चतुर्थज्ञानसम्पनो द्वितीयेऽह्वयविशत्पुरीम् । भोक्तुं पाटलिपुत्राख्यां समुनद्धपताकिकाम् ॥ ४० ॥ "धन्यषेणमहीपालो दत्त्वाऽस्मै कनकद्युतिः । दानमुत्तमपात्राय प्रापदाश्चर्यपञ्चकम् ॥४१॥ तथैकवर्षच्छमस्थकालेऽतीते पुरातने । वने सप्तच्छदस्याधः कृतषष्ठोपवासकः ॥ ४२ ॥
पूर्णमास्यां च पुष्यः सायाह्ने प्राप केवलम् । आससाद च सत्पूजां तुर्यकल्याणसूचिनीम् ॥ ४३ ॥ नायिकाके समान इच्छानुसार फल देने वाली थी ॥ २८ ॥ जब अन्य भव्य जीव इन धर्मनाथ भगवान्के प्रभावसे अपने कर्मरूपी शत्रुओंको नष्ट कर निर्मल सुख प्राप्त करेंगे तब इनके सुखका वर्णन कैसे किया जा सकता है ? ॥२६॥
जब पाँच लाख वर्ष प्रमाण राज्यकाल बीत गया तब किसी एक दिन उल्कापात देखनेसे इन्हें वैराग्य उत्पन्न हो गया। विरक्त होकर वे इस प्रकार चिन्तवन करने लगे-'मेरा यह शरीर कैसे, कहाँ और किससे उत्पन्न हुआ है ? किमात्मक है, किसका पात्र है और आगे चलकर क्या होगा ऐसा विचार न कर मुझ मूर्खने इसके साथ चिरकाल तक संगति की। पापका संचय कर उसके उदयसे मैं आज तक दुःख भोगता रहा। कर्मसे प्रेरित हुए मुझ दुर्मतिने दुःखको ही सुख मानकर कभी शाश्वत-स्थायी सुख प्राप्त नहीं किया। मैं व्यर्थ ही अनेक भवोंमें भ्रमण कर थक गया । ये ज्ञान दर्शन आदि मेरे गुण हैं यह मैंने कल्पना भी नहीं की किन्तु इसके विरुद्ध बुद्धिके विपरीत होनेसे रागादिको अपना गुण मानता रहा । स्नेह तथा मोहरूपी ग्रहोंसे प्रसा हुआ यह प्राणी बार-बार परिवारके लोगों तथा धनका पोषण करता हुआ पाप उपार्जन करता है और पापके संचयसे अनेक दुगतियोंमें भटकता है। इस प्रकार भगवानको स्वयं बुद्ध जानकर लौकान्तिक देव आये और बड़ी भक्तिके साथ इस प्रकार स्तुति करने लगे कि हे देव ! आज आप कृतार्थ-कृतकृत्य हुए ॥ ३०-३६ ।। उन्होंने सुधर्म नामके ज्येष्ठ पुत्रके लिए राज्य दिया, दीक्षा-कल्याणकके समय होने वाले अभिषेकका उत्सव प्राप्त किया, नागदत्ता नामकी पालकीमें सवार होकर ज्येष्ठ देवोंके साथ शालवनके उद्यानमें जाकर दो दिनके उपवासका नियम लिया और माघशुक्ला त्रयोदशीके दिन सायंकालके समय पुष्य नक्षत्र में एकहजार राजाओंके साथ मोक्ष प्राप्त करानेवाली दीक्षा धारण कर ली ॥ ३७-३६ ॥ दीक्षा लेते ही उन्हें मनःपर्यय ज्ञान उत्पन्न हो गया। वे दूसरे दिन आहार लेनेके लिए पताकाओंसे सजी हुई पाटलिपुत्र नामकी नगरीमें गये ।। ४०॥ वहाँ सुवर्णके समान कान्तिवाले धन्यषेण राजाने उन उत्तम पात्रके लिए दान देकर पञ्चाश्चर्य प्राप्त किये ॥४१॥ तदनन्तर छद्मस्थ अवस्थाका एक वर्ष बीत जाने पर उन्होंने उसी पुरातन वनमें सप्तच्छद वृक्षके नीचे दो दिनके उपवासका नियम लेकर योग धारण किया और पौषशुक्ल पूर्णिमाके दिन सायंकालके समय पुष्य
१ किमात्मकः । २ भाजनः क०, घ० । भाजने ख० । ३ धनाद्यलम् ल०। ४ प्राप्तः ल०। -सवम् ल०। ६ सह ख०। ७धान्यषेण क०, घ० ।
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