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महापुराणे उत्तरपुराणम्
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विचार्य ते त्रिदोषोत्थविकारानवलोकनात् । अनुमानादयं धर्मश्रुतेर्जातिस्मरोऽभवत् ॥ २५१ ॥ इति सत्पात्रनिष्पन्नशुद्धाहारं घृतादिभिः । मिश्रितं न्यक्षिपत्क्षितं तमभुत द्विपोत्तमः ॥ २५२ ॥ तदा सविस्मयो राजा गत्वाऽवधिविलोचनम् । वज्रदन्तं तदाख्याय तद्धेतुं पृच्छति स्म सः ॥ २५३ ॥ मुनिर्बभाषे भो भूप शृणु तत्संविधानकम् । भरतेऽस्मिन्नृपः प्रीतिभद्रः छत्रपुराधिपः ॥ २५४ ॥ सुन्दर्यामभवत्तस्य सुतः प्रीतिकराह्वयः । मन्त्री चित्रमतिस्तस्य कमला कमलोपमा ॥ २५५ ॥ गृहिणी तुम्बभूवास्या विचित्रमतिराख्यया । नृपमन्त्रिसुतौ श्रुत्वा धर्मं धर्मरुचेर्यतेः ॥ तदैव भोगनिर्विण्णौ द्वावप्याददतुस्तपः । क्षीरास्त्रवद्धिरुत्पन्ना प्रीतिकरमहामुनेः ॥ २५७ ॥ साकेतपुरमन्येद्युर्जग्मतुस्तौ यथाक्रमम् । विहरन्तावुपोष्यास्त े तत्र मन्त्रिसुतो यतिः ॥ २५८ ॥ प्रीतिङ्करः पुरे चर्यां यान्तं स्वगृहसन्निधौ । गणिका बुद्धिषेणाख्या प्रणम्य विनयान्विता ॥ २५९ ॥ दानयोग्यकुला नाहमस्मीत्यात्मानमुच्छुचा । निन्दन्ती वाढमप्राक्षीन्मुने कथय जन्मिनाम् ॥ २६० ॥ कुलरूपादयः केन जायन्ते संस्तुता इति । मद्यभांसादिकत्यागादित्युदीर्य मुनिश्व सः ॥ २६१ ॥ ततः प्रत्यागतः कस्मात् स्थितो हेतोश्चिरं पुरे । भवानिति तमप्राक्षीद्विचित्रमतिरादरात् ॥ २६२ ॥ सोऽपि तद्गुणिकावार्ता यथावृत्तं न्यवेदयत् । परेद्युर्मन्त्रितुग् भिक्षावेलायां गणिकागृहम् ॥ २६३ ॥ प्राविशत्सापि तं दृष्ट्वा समुत्थाय ससम्भ्रमम् । वन्दित्वा पूर्ववद्धर्ममन्वयुक्त कृतादरा ॥ २६४ ॥ कामरागकथामेव व्याजहार स दुर्मतिः । तदिङ्गितज्ञयावज्ञा तया तस्मिन्न्यधीयत । २६५ ॥ प्राप्तापमानेन रुषा सूपशास्त्रोक्तिसंस्कृतात् । मांसारानगराधीशं गन्धमित्रमहीपतिम् ॥ २६६ ॥
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है ? ।। २५० ।। उन्होंने जब वात, पित्त और कफसे उत्पन्न हुआ कोई विकार नहीं देखा तब अनुमानसे विचारकर कहा कि धर्मश्रवण करनेसे इसे जाति-स्मरण हो गया है इसलिए उन्होंने किसी अच्छे बर्तनमें बना तथा घृत दिसे मिला हुआ शुद्ध आहार उसके सामने रक्खा जिसे उस गजराजने खा लिया ।। २५१-२५२ ।। यह देख राजा बहुत ही आश्चर्यको प्राप्त हुआ । वह वज्रदन्त नामक अवधिज्ञानी मुनिराजके पास गया और यह सब समाचार कहकर उनसे इसका कारण पूछने लगा ॥ २५३ ॥
राजने कहा कि हे राजन्! मैं सब कारण कहता हूँ तू सुन। इसी भरत क्षेत्रमें छत्रपुर नगरका राजा प्रीतिभद्र था । उसकी सुन्दरी नामकी रानीसे प्रीतिङ्कर नामक पुत्र हुआ । राजाके एक चित्रमति नामक मंत्री था और लक्ष्मीके समान उसकी कमला नामकी स्त्री थी ।। २५४-२५५ ।। कमलाके विचित्रमति नामका पुत्र हुआ। एक दिन राजा और मंत्री दोनोंके पुत्रोंने धर्मरुचि नामके मुनिराज से धर्मका उपदेश सुना और उसी समय भोगोंसे उदास होकर दोनोंने तप धारण कर लिया । महामुनि प्रीतिंकरको क्षीरात्रव नामकी ऋद्धि उत्पन्न हो गई ।। २५६ - २५७ ॥ एक दिन वे दोनों मुनि क्रमक्रमसे विहार करते हुए साकेतपुर पहुँचे । उनमें से मंत्रिपुत्र विचित्रमति मुनि उपवासका नियम लेकर नगरके बाहर रह गये और राजपुत्र प्रीतिंकरमुनि चर्याके लिए नगरमें गये । अपने घरके समीप जाता हुआ देख बुद्धिषेणा नामकी वेश्याने उन्हें बड़ी विनय से प्रणाम किया ।। २५८ - २५६ ।। और मेरा कुल दान देने योग्य नहीं है इसलिए बड़े शोकसे अपनी निन्दा करती हुई उसने मुनिराज से पूछा कि हे मुने, आप यह बताइये कि प्राणियोंको उत्तम कुल तथा रूप आदिकी प्राप्ति किस कारण से होती है ? 'मद्य मांसादिके त्यागसे होती है' ऐसा कहकर वह मुनि नगरसे वापिस लौट आये । दूसरे विचित्रमति मुनिने उनसे आदरके साथ पूछा कि आप नगरमें बहुत देर तक कैसे ठहरे ? ।। २६०-२६२ ॥ उन्होंने भी वेश्या के साथ जो बात हुई थी वह ज्यों की त्यों निवेदन कर दी । दूसरे दिन मंत्रिपुत्र विचित्रमति मुनिने भिक्षाके समय वेश्याके घरमें प्रवेश किया । वेश्या मुनिको देखकर एकदम उठी तथा नमस्कार कर पहलेके समान बड़े आदरसे धर्मका स्वरूप पूछने लगी ।। २६३२६४ ॥ परन्तु दुर्बुद्धि विचित्रमति मुनिने उसके साथ काम और राग सम्बन्धी कथाएँ ही कीं । वेश्या उनके अभिप्रायको समझ गई अतः उसने उनका तिरस्कार किया ।। २६५ ॥ विचित्रमति
१- दयंश्चर्म - ल० । २ 'श्रास्त' इति क्रियापदम् ।
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