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षष्टितमं पर्व
दुःखदुः फलसन्नम्रां दुष्कर्मविष्वलरीम् । शुक्लध्यानासिनामूलं चिच्छित्सुः स्वात्मसिद्धये ॥ २९॥ लौकान्तिकैः समभ्येत्य प्रस्तुवद्भिः प्रपूजितः । अनन्तविजये राज्यं नियोज्य विजयी तुजि ॥ ३० ॥ सुरैस्तृतीय कल्याणपूजां प्राप्याधिरूढवान् । यानं सागरदत्ताख्यं सहेतुकवनान्तरे ॥ ३१ ॥ ज्येष्ठे षष्ठोपवासेन रेवत्यां द्वादशीदिने । सहस्रेणासिते राज्ञामदीक्षिष्टापराह्नके ॥ ३२ ॥ सम्प्राप्तोपान्त्यसंज्ञानः ससामायिकसंयमः । द्वितीयेऽह्नि स चर्यायै साकेतं समुपेयिवान् ॥ ३३ ॥ विशाखभूपतिस्तस्मै दत्वाऽन्नं कनकच्छविः । आश्चर्यपञ्चकं प्राप ज्ञापकं स्वर्गमोक्षयोः ॥ ३४ ॥ संवत्सरद्वये याते छाद्मस्थ्ये प्राक्तने वने । अश्वत्थपादपोपान्ते कैवल्यमुदपीपदत् ॥ ३५ ॥ चैमामास्यहः प्रान्ते रेवत्यां सुरसत्तमाः । तदैव तुर्यकल्याणपूजां च निरवर्तयन् ॥ ३६ ॥ जयाख्यमुख्यपञ्चाशद्गुणभृबृंहितात्मवाक् । सहस्रपूर्व भृद्वन्द्यः खद्वयद्वयभिवाद्यधीट् ॥ ३७ ॥ खद्वयेन्द्रियरन्धाभिसङ्ख्यालक्षितशिक्षकः । शून्यद्वय त्रिवार्युंक्ततृतीयज्ञानपूजितः ॥ ३८ ॥ शून्यत्रयेन्द्रियप्रोक्तकेवलावगमान्वितः । शून्यत्रयवसूद्दिष्टविक्रियद्धिं विभूषितः ॥ ३९ ॥ शून्यत्रयेन्द्रियप्रोक्तमनः पर्ययबोधनः ' । पिण्डीकृतोक्तषट्षष्टिसहस्रमुनिमानितः ॥ ४० ॥ सलक्षाष्टसहस्त्रोक्तसर्वश्याद्यायिकागणः । द्विलक्षश्रावकाभ्यर्च्य द्विगुणश्राविकास्तुतः ॥ ४१ ॥ असङ्ख्य देवदेवीडय स्तिर्यक्सङ्ख्यातसेवितः । इति द्वादशविख्यातभव्यवृन्दारकाग्रणीः ॥ ४२॥ सदसद्वादसद्भावमाविष्कुर्वननन्तजित् । विहृत्य विश्रुतान् देशान् विनेयान्योजयन् पथि ॥ ४३॥ - सम्मेदगिरिमासाद्य विहाय विहृतिं स्थितः । मासं शताधिकैः षड्भिः सहस्रैः मुनिभिः सह ॥ ४४ ॥ गतिके द्वारा फैली हुई है, वृद्धावस्थारूपी फूलोंसे ढकी हुई है, अनेक रोग ही इसके पत्ते हैं, और दुःखरूपी दुष्ट फलोंसे झुक रही है । इस दुष्ट कर्मरूपी वेलको शुक्ल ध्यानरूपी तलवारके द्वारा आत्म-कल्याण के लिए जड़ मूलसे काटना चाहता हूँ ।। २७-२६ ॥ ऐसा विचार करते ही स्तुति करते हुए लौकान्तिक देव आ पहुँचे। उन्होंने उनकी पूजा की, विजयी भगवान् ने अपने अनन्तविजय पुत्रके लिए राज्य दिया; देवोंने तृतीय - दीक्षा कल्याणककी पूजा की, भगवान् सागरदत्त नामक पालकी पर सवार होकर सहेतुक वनमें गये और वहाँ वेलाका नियम लेकर ज्येष्ठ कृष्ण द्वादशीके दिन सायंकाल के समय एक हजार राजाओंके साथ दीक्षित हो गये ।। ३०-३२ ॥ जिन्हें मन:पर्यय ज्ञान प्राप्त हुआ है और जो सामायिक संयमसे सहित हैं ऐसे अनन्तनाथ दूसरे दिन चर्याके लिए साकेतपुरमें गये || ३३॥ वहाँ सुवर्णके समान कान्ति वाले विशाख नामक राजाने उन्हें आहार देकर स्वर्ग तथा मोक्षकी सूचना देनेवाले पंचाश्चर्य प्राप्त किये ॥ ३४ ॥ इस प्रकार तपश्चरण करते हुए जब छद्मस्थ अवस्थाके दो वर्ष बीत गये तब पूर्वोक्त सहेतुक वनमें अश्वत्थ - पीपल वृक्षके नीचे चैत्र कृष्ण अमावस्या के दिन सायंकालके समय रेवती नक्षत्र में उन्होंने केवलज्ञान उत्पन्न किया। उसी समय देवोंने चतुर्थ कल्याणककी पूजा की ।। ३५-३६ ।।
जय आदि पचास गणधरोंके द्वारा उनकी दिव्य ध्वनिका विस्तार होता था, वे एक हजार पूर्वधारियोंके द्वारा वन्दनीय थे, तीन हजार दो सौ वाद करनेवाले मुनियोंके स्वामी थे, उनतालीस हजार पाँच सौ शिक्षक उनके साथ रहते थे, चार हजार तीन सौ अवधिज्ञानी उनकी पूजा करते थे, पाँच हजार केवलज्ञानियोंसे सहित थे, आठ हजार विक्रियाऋद्धिके धारकोंसे विभूषित थे, पाँच हजार मन:पर्ययज्ञानी उनके साथ रहते थे, इस प्रकार सब मिलाकर छयासठ हजार मुनि उनकी पूजा करते थे । सर्वश्रीको आदि लेकर एक लाख आठ हजार आर्यिकाओं का समूह उनके साथ था, दोलाख श्रावक उनकी पूजा करते थे और चार लाख श्राविकाएँ उनकी स्तुति करती थीं। वे असंख्यात देवदेवियोंके द्वारा स्तुत थे और संख्यात तिर्यश्र्वोंसे सेवित थे । इस तरह बारह सभाओं में विद्यमान भव्य समूहके अग्रणी थे ।। ३७-४२ ॥ पदार्थ कथंचित् सद्रूप है और कथंचिद् असद्रूप है इस प्रकार विधि और निषेध पक्षके सद्भावको प्रकट करते हुए भगवान् अनन्तजित्ने प्रसिद्ध देशों में बिहार कर भव्य जीवोंको सन्मार्गमें लगाया ॥ ४३ ॥ अन्तमें सम्मेद शिखर पर जाकर उन्होंने
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१ संयुतः क०, घ० । २ - मानतः क० ।
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