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षष्टितम पर्व
श्रेयोगणधरं प्राप्य प्रवज्यां प्रतिपद्य सः। सिंहनिःक्रीडिताद्यग्रं तपस्तप्त्वा महाबलः ॥ ५५॥ यदि विद्येत चर्यायाः फलमन्यत्र जन्मनि । अलध्यशासनः कान्तो भवामीत्यकरोन्मतिम् ॥ ५६ ॥ ततो विहितसंन्यासः सहस्रारं जगाम सः। अष्टादशसमुद्रायुद्वादशं कल्पमुत्तमम् ॥ ५७ ॥ अथ जम्बूमति द्वीपे प्राग्विदेहे महद्धिंके । नन्दनाख्ये पुरे प्राभन्नराधीशो महाबलः ॥ ५० ॥ प्रजानां पालको भोक्ता सुखानामतिधार्मिकः । श्रीमान् दिकप्रान्तविश्रान्तकीर्तिरातिहरोऽथिनाम् ॥५९॥ स कदाचिच्छरीरादियाथात्म्यावगमोदयात् । विरक्तस्तेषु निर्वाणपदवीप्रापणोत्सुकः ॥ ६॥ दत्वा राज्यं स्वपुत्राय प्रजापालाई दन्तिके । गृहीतसंयमः सिंहनिःक्रीडिततपः श्रितः ॥ ६१ ॥ संन्यस्यन्ति सहस्रार प्राप्याष्टादशसागर । स्थिति भोगांश्चिरं भुक्त्वा तदन्ते शान्तमानसः ॥ ६२ ॥ अथेह भारते द्वारवस्यां सोमप्रभप्रभोः। जयवत्यामभूत्सूनुः सुरूपः सुप्रभातयः ॥ ६३ ॥ महायतिः समुत्तङ्गः सुरविद्याधराश्रयः । श्वेतिमानं दधत् सोऽभाद् विजयार्द्ध इवापरः ॥ ६४ ॥ कलङ्कविकलः कान्तः सन्ततं सर्वचिचहृत् । पद्मानन्दविधायीत्थमतिशेते विधुं च सः ॥६५॥ तस्यैव सुषेणाख्यः सीतायां पुरुषोत्तमः। तोकोऽजनि जनानन्दविधायी विविधैर्गुणैः ॥६६॥
उसके प्राण खींच रहा था परन्तु उसे शास्त्रज्ञानका बल था अतः वह शान्त होकर श्रेय नामक गणधरके पास जाकर दीक्षित हो गया। उस महाबलवान्ने सिंहनिष्क्रीडित आदि कठिन तपकर यह-निदान किया कि यदि मेरी इस तपश्चर्या का कुछ फल हो तो मैं अन्य जन्ममें ऐसा राजा होऊँ कि जिसकी आज्ञाका कोई भी उल्लंघन न कर सके ।। ५४-५६॥ तदनन्तर संन्यासमरणकर वह सहस्रार नामक बारहवें स्वर्ग गया। वहाँ अठारह सागरकी उसकी आयु थी।। ५७।। ___ अथानन्तर-जम्बूद्वीपके पूर्व विदेह क्षेत्रमें एक सम्पत्तिसम्पन्न नन्दन नामका नगर है। उसमें महाबल नामका राजा राज्य करता था। वह प्रजाकी रक्षा करता हुआ सुखोंका उपभोग करता था, अत्यन्त धर्मात्म , श्रीमान् था, उसकी कीर्ति दिशाओंके अन्त तक फैली थी, और वह याचकोंकी पीड़ा दूर करनेवाला था-बहुत दानी था ॥५८-५६ ।। एक दिन उसे शरीरादि वस्तुओंके यथार्थ स्वरूपका बोध हो गया जिससे वह उनसे विरक्त होकर मोक्ष प्राप्त करनेके लिए उत्सुक हो गया ॥६०।। उसने अपने पुत्र के लिए राज्य दिया और प्रजापाल नामक अर्हन्तके समीप संयम धारण कर सिंहनिष्कीडित नामका तप किया ॥६१॥ अन्तमें संन्यास धारण कर अठारह सागरकी स्थितिवाले सहस्रार स्वर्गमें उत्पन्न हुआ । वहाँ चिरकाल तक भोग भोगता रहा। जब अन्तिम समय आया तब शान्तचित्त होकर मरा।। ६२ ।। और इसी जम्बूद्वीप सम्बन्धी भरत क्षेत्रकी द्वारवती नगरके स्वामी राजा सोमप्रभकी रानी जयवन्तीके सुप्रभ नामका सुन्दर पुत्र हुआ। ६३ ॥ वह सुप्रभ दूसरे विजयार्धके समान सुशोभित हो रहा था क्योंकि जिस प्रकार विजयाध महायतिबहुत लम्बा है उसी प्रकार सुप्रभ भी महायति-उत्तम भविष्यसे सहित था, जिस प्रकार विजया समुतुङ्ग-ऊँचा है उसी प्रकार सुप्रभ भी समुतुङ्ग-उदार प्रकृति का था, जिस प्रकार विजया देव और विद्याधरोंका आश्रय-आधार-रहनेका स्थान है उसी प्रकार सुप्रभ भी देव और विद्याधरोंका आश्रय-रक्षक था और जिस प्रकार विजया श्वेतिमा-शुक्लवर्णको धारण करता है उसी प्रकार सुप्रभ भी श्वेतिमा शुक्लवर्ण अथवा कीर्ति सम्बन्धी शुलताको धारण करता था ॥६४॥ यही नहीं, वह सुप्रभ चन्द्रमाको भी पराजित करता था क्योंकि चन्द्रमा कलङ्कसहित है परन्तु सुप्रभ कलङ्करहित था, चन्द्रमा केवल रात्रिके समय ही कान्त-सुन्दर दिखता है परन्तु सुप्रभ रात्रिदिन सदा ही सुन्दर दिखता था, चन्द्रमा सबके चित्तको हरण नहीं करता-चकवा आदिको प्रिय नहीं लगता परन्तु सुप्रभ सबके चित्तको हरण करता था-सर्वप्रिय था, और चन्द्रमा पद्मानन्दविधायी नहीं है-कमलोंको विकसित नहीं करता परन्तु सुप्रभ पद्मानन्दविधायी था-लक्ष्मीको आनन्दित करनेवाला था।। ६५ ।। उसी राजाकी सीता नामकी रानीके वसुषेणका जीव पुरुषोत्तम नामका पुत्र
१ महाबलः ज.।
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