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एकोनषष्टितमं पर्व
ते च तं च निरीक्ष्यैष स सूर्यप्रतिमं क्रुधा । सहागिलत् समाराध्य ते कापिष्ठे बभूवतुः ॥ २३७ ॥ रुचकाख्ये विमानेऽयं मुनिश्चार्कप्रभाह्वये । देवः पङ्कप्रभां प्रापत् पापादजगरोऽपि सः ॥ २३८ ॥ सिंहचन्द्रो दिवोऽभ्येत्य द्वीपेऽस्मिन् चक्रपुः पतेः । अपराजितराजस्य सुन्दर्याश्च सुतोऽभवत् ॥ २३९ ॥ चक्रायुधस्ततोऽस्यैव रश्मिवेगरच्युतो दिवः । सञ्जातश्चित्रमालायां सुतो वज्रायुधाह्वयः ॥ २४० ॥ श्रीधरा चागता नाकात् पृथिवीतिलके पुरे । सुताऽभूत् प्रियकारिण्यामतिवेगमहीपतेः ॥ २४१ ॥ सर्वलक्षणसम्पूर्णा' रत्नमालातिविश्रुता । वज्रायुधस्य सा देवी समजायत सम्मुदे ॥ २४२ ॥ यशोधरा तयो रत्नायुधः सूनुरजायत । एवमेते स्वपूर्वायफलमत्रापुरन्वहम् ॥ २४३ ॥
श्रुत्वाऽपराजितो धर्ममन्येद्युः पिहितास्रवात् । चक्रांयुधाय साम्राज्यं दत्वाऽदीक्षिष्ट धीरधीः ॥ २४४ ॥ वज्रायुधे समारोप्य राज्यं चक्रायुधो नृपः । प्रावाजीत् स्वपितुः पार्श्वे स तज्जन्मनि मुक्तिभाक् ॥ २४५॥ अधिरत्नायुधं राज्यं कृत्वा चक्रायुधान्तिके । वज्रायुधोऽप्यगाद्दीक्षां किं न कुर्वन्ति सात्विकाः ॥ २४६ ॥ सो रत्नायुधो भोगे त्यक्त्वा धर्मकथामपि । सोऽन्वभूदति गृध्नुत्वात्सुखानि चिरमन्यदा ॥ २४७ ॥ मनोरममहोद्याने वज्रदन्तमहामुनि । व्यावर्ण्यमान लोकानुयोगश्रवणवृद्धधीः ॥ २४८ ॥ पूर्वजन्मस्मृते में घविजयो ४योगधारणः । मांसादिकवलं" नादाद् ध्यायन् संसृतिदुःस्थितिम् ॥ २४९ ॥ राजाsय व्याकुलीभूय मन्त्रिवैद्यवरान् स्वयम् । पप्रच्छ को विकारोऽस्य गजस्येत्याहितादरः ॥ २५० ॥
उन श्रीधरा तथा यशोधरा आर्यिकाओं को और सूर्य के समान दीप्तिवाले उन रश्मिवेग मुनिराजको देखकर उस अजगरने क्रोधसे एक ही साथ निगल लिया । समाधिमरण कर आर्यिकाएँ तो कापिष्ठ नामक स्वर्गके रुचक नामक विमानमें उत्पन्न हुईं और मुनि उसी स्वर्गके अर्कप्रभ नामक विमानमें देव उत्पन्न हुए। वह अजगर भी पापके उदयसे पङ्कप्रभा नामक चतुर्थ पृथिवीमें पहुँचा ।।२३७-२३८ || सिंहचन्द्रका जीव स्वर्गसे चय कर इसी जम्बूद्वीप के चक्रपुर नगरके स्वामी राजा अपराजित और उनकी सुन्दरी नामकी रानीके चक्रायुध नामका पुत्र हुआ | || २३६ ॥ उसके कुछ समय बाद रश्मिवेगका जीव भी स्वर्गसे च्युत होकर इसी अपराजित राजाकी दूसरी रानी चित्रमालाके वज्रायुध नामका पुत्र हुआ ॥ २४० ॥ श्रीधरा आर्यिका स्वर्गसे चयकर धरणीतिलक नगरके स्वामी अतिवेग राजाकी प्रियकारिणी रानीके समस्त लक्षणोंसे सम्पूर्ण रत्नमाला नामकी अत्यन्त प्रसिद्ध पुत्री हुई। यह रत्न - माला आगे चलकर वज्रायुधके आनन्दको बढ़ानेवाली उसकी प्राणप्रिया हुई ।। २४१ - २४२ ।। और यशोधरा का स्वर्ग से चयकर इन दोनों - वत्रायुध और रत्नमालाके रत्नायुध नामका पुत्र हुई । इस प्रकारसे सब यहाँ प्रतिदिन अपने-अपने पूर्व पुण्यका फल प्राप्त करने लगे || २४३ ||
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किसी दिन धीरबुद्धिके धारक राजा अपराजितने पिहितास्रव मुनिसे धर्मोपदेश सुना और चक्रायुधके लिए राज्य देकर दीक्षा ले ली ॥ २४४ ॥ कुछ समय बाद राजा चक्रायुध भी वायुध पर राज्यका भार रखकर अपने पिताके पास दीक्षित हो गये और उसी जन्ममें मोक्ष चले गये ।। २४५ ।। अब वज्रायुधने भी राज्यका भार रत्नायुधके लिए सौंपकर चक्रायुधके समीप दीक्षा लेली सो ठीक ही है क्योंकि सत्त्वगुणके धारक क्या नहीं करते ? ॥ २४६ ॥ रत्नायुध भोगों में आसक्त था । अतः धर्मकी कथा छोड़कर बड़ी लम्पटताके साथ वह चिरकाल तक राज्यके सुख भोगता रहा। किसी समय मनोरम नामके महोद्यानमें वज्रदन्त महामुनि लोकानुयोगका वर्णन कर रहे थे उसे सुनकर बड़ी बुद्धिवाले, राजाके मेघविजय नामक हाथीको अपने पूर्व भवका स्मरण हो आया जिससे उसने योग धारण कर लिया, मांसादि प्रास लेना छोड़ दिया और संसारकी दुःखमय स्थितिका वह विचार करने लगा ॥ २४७-२४६ ॥ यह देख राजा घबड़ा गया, उसने बड़े बड़े मन्त्रवादियों तथा वैद्योंको बुलाकर स्वयं ही बड़े आदरसे पूछा कि इस हाथीको क्या विकार हो गया
१ संपूर्ण ल० । २ संपदे क०, ग०, घ० । संमदे ख० । ३-दतिगृध्नंत्वात् ग० । ४ योगवारणः ख० । यागवारण: ग० । जागवारणः क०, घ० । ५ मांसादिकवलान्नादाद् ग० । ६ राजा तु ल० ।
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