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महापुराणे उत्तरपुराणम् इत्यसौ सिंहचन्द्रोक्तं रामदाऽवबुध्य तत् । पुत्रस्नेहात्स्वयं गत्वा पूर्णचन्द्रमजिज्ञपत् ॥ २२ ॥ गृहीतधर्मतस्वोऽसौ चिरं राज्यमपालयत् । रामदशापि तत्स्नेहात्सनिदानायुषोऽवधौ ॥ २२५॥ महाशुक्रे विमानेऽभूदु भास्करे भास्कराह्वयः। पूर्णचन्द्रोऽपि तत्रैव वैडूर्ये तत्कृतायः ॥ २२६॥ सिंहचन्द्रो मुनीन्द्रोऽपि सम्यगाराध्य शुद्धधी: । प्रीतिकरविमानेऽभूदूर्ध्वग्रैवेयकोर्ध्वके ॥ २२० ।। रामदत्ता ततश्च्युत्वा धरणीतिलके पुरे । अत्रैव दक्षिणश्रेण्यामतिवेगखगेशिनः ॥ २२८ ॥ श्रीधराख्या सुता जाता माताऽस्याः स्यात्सुलक्षणा । दोयमलकाधीशे 'दर्शकाय खगेशिने ॥ २२९ ॥ वैडूर्याधिपतिश्चार्य दुहिताऽभूद्यशोधरा । "पुष्कराख्यपुरे सूर्यावर्तायादाय्यसावपि ॥ २३०॥
राजा श्रीधरदेवोऽपि रश्मिवेगस्तयोरभूत् । कदाचिन्मुनिचन्द्राख्यमुनिधर्मानुशासनात् ॥ २३ ॥ सूर्यावर्ते “तपो याते श्रीधरा च यशोधरा । दीक्षां समग्रहीषातां गुणवत्यायिकान्तिके ॥ २३२ ॥ कदाचिद्रश्मिवेगोऽगासिद्धकूटजिनालयम् । हरिचन्द्राह्वयं "तत्र दृष्टा चारणसंयतम् ॥ २३३ ॥ श्रुत्वा धर्म च सम्यक्त्वं संयम प्रतिपद्य सः। चारणत्वं च सम्प्राप्तः सद्योगगनगोचरम् ॥ २३ ॥ काञ्चनाख्यगुहायां तं कदाचिदवलोक्य ते । वन्दित्वा तिष्ठतां तत्र श्रीधरा च यशोधरा ॥२३५॥ प्राक्तनो तारकस्तस्मात्प्रच्युत्याधविपाकतः । चिरं भ्रमित्वा संसारे महानजगरोऽभवत् ॥ २३६ ॥
संसारके अभावका विचार नहीं करता है तो संसारके ऐसे स्वभावका विचार करनेवाला कौन मनुष्य है जो विषय-भोगोंमें प्रीति बढ़ानेवाला हो ? ।। २२३ ॥ इस तरह सिंहचन्द्र मुनिके समझाने पर रामदत्ताको बोध हुआ, वह पुत्रके स्नेहसे राजा पूर्णचन्द्रके पास गई और उसे सब बातें कहकर समझाया ॥२२४ ॥ पूर्णचन्द्रने धर्मके तत्त्वको समझा और चिरकाल तक राज्यका पालन किया। रामदत्ताने पुत्रके स्नेहसे निदान किया और आयुके अन्तमें मरकर महाशुक्र स्वर्गके भास्कर नामक विमानमें देव पद प्राप्त किया। तथा पूर्णचन्द्र भी उसी स्वर्गके वैडूर्य नामक विमानमें वैडूर्य नामका देव हुआ ।। २२५-२२६ ॥ निर्मल ज्ञानके धारक सिंहचन्द्र मुनिराज भी अच्छी तरह समाधिमरण कर नौवें अवेयकके प्रीतिंकर विमानमें अहमिन्द्र हुए। २२७ ॥ रामदत्ताका जीव महाशुक्र स्वर्गसे चयकर इसी दक्षिण श्रेणीके धरणीतिलक नामक नगरके स्वामी अतिवेग विद्याधरके श्रीधरा नामकी पुत्री हुआ। वहाँ इसकी माताका नाम सुलक्षणा था। यह श्रीधरा पुत्री अलकानगरीके अधिपतिदर्शक नामक विद्याधरके राजाके लिए दी गई। पूर्णचन्द्रका जीव जो कि महाशुक्र स्वर्गके बैंडर्य विमानमें वैर्य नामक देव हुआ था वहाँसे चयकर इसी श्रीधराके यशोधरा नामकी वह क हुई जो कि पुष्करपुर नगरके राजा सूर्यावर्तके लिए दी गई थी॥२२८-२३०॥ राजा सिंहसेन अथवा अशनिघोष हाथीका जीव श्रीधर देव उन दोनों-सूर्यावर्त और यशोधराके रश्मिवेग नामका पुत्र हुआ। किसी समय मुनिचन्द्र नामक मुनिसे धर्मोपदेश सुनकर राजा सूर्यावर्त तपके लिए चले गये
और श्रीधरा तथा यशोधराने गुणवती आर्यिकाके पास दीक्षा धारण कर ली ।। २३१-२३२ ॥ किसी समय रश्मिवेग सिद्धकूट पर विद्यमान जिन-मन्दिरके दर्शनके लिए गया था, वहाँ उसने चारणऋद्धि धारी हरिचन्द्र नामक मुनिराजके दर्शन कर उनसे धर्मका स्वरूप सुना, उन्हींसे सम्यग्दर्शन
और संयम प्राप्त कर मुनि हो गया तथा शीघ्र ही आकाशचारण ऋद्धि प्राप्त कर ली ।। २३३-२३४॥ किसी दिन रश्मिवेग मुनि काश्चन नामकी गुहामें विराजमान थे, उन्हें देखकर श्रीधरा और यशोधरा आर्यिकाएँ उन्हें नमस्कार कर वहीं बैठ गई ।। २३५ ॥
इधर सत्यघोषका जीव जो तीसरे नरकमें नारकी हुआ था वहाँसे निकल कर पापके उदयसे चिरकाल तक संसारमें भ्रमण करता रहा और अन्तमें उसी वनमें महान् अजगर हुआ ॥२३६ ।।
१दर्शिताय ख०। २ भास्कराख्यपुरे सूर्यावर्तायादाग्यसावपि ख०, ग०।३ गजः श्रीधर ख०, ग.। गजः पाठान्तरं इति क-पुस्तके सूचितम् । ४ तपो जाते क०, ग०,०। ५ यत्र क..ख. चारणसंयमम् ख०। ७ गमनगोवरम् ल ।
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