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एकोनषष्टितम पर्व
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सोऽपि यचेवमेतस्य वंशानां मासिधन् महा-। विद्याः पुंसां स्त्रियः सब्जयन्तभट्टारकान्तिके ॥ २९८ ॥ साधयन्त्वन्यथा दर्पादिमे दुष्टाः कुचेष्टिताः। भविष्यतां च साधूनां पापाः कुर्वन्त्युपद्रवम् ॥ २९९ ॥ एषोऽपि पर्वसो विद्याधरह्रीक्रीडितः परः । ह्रीमन्नामेत्युदीर्यास्मिन् मातृप्रतिनिधि व्यधात् ॥ ३०० ॥ विद्युहष्टच सामोक्तैर्धर्मन्यायानुयायिभिः । कृत्वा १प्रशान्तकालुष्यं देवं चाभ्यर्थ्य यातवान् ॥३०॥ देवोऽपि स्वायुरन्तेऽस्मिन्नुसरे मथुरापुरे । अनन्तवीर्यराडमेरुमालिन्यां मेरुनामभाक् ॥ ३०२॥ तस्यैवामितवत्यां स धरणीन्द्रोऽपि मन्दरः। समभूतां सुतावेताविव शुक्रबृहस्पती ।। ३०३ ॥ तावासमविनेयत्वात् श्रित्वा विमलवाहनम् । श्रुत्वा स्वभवसम्बन्धमजायेतां गणेशिनी ॥ ३०४ ॥ इह प्रत्येकमेतेषां नोमग्रहणपूर्वकम् । 'गतिभेदावली व्याख्या सङ्कलश्चाभिधीयते ॥ ३०५ ॥ सिंहसेनोऽशनिघोषप्रान्तः श्रीधरसज्ञकः । रश्मिवेगः प्रभातार्को वज्रायुधमहानृपः ॥ ३०६ ॥ सर्वार्थसिद्धौ देवेन्द्रः सब्जयन्तः ततश्च्युतः । इत्यष्टजन्मभिः प्रापत्सिहसेनः श्रियः पदम् ॥ ३०७ ॥ मधुरा रामदत्तानु भास्करः श्रीधरा सुरः । रत्नमालाऽच्युते देवस्ततो वीतभयावयः ॥ ३०८॥ आदित्याभस्ततो मेरुर्गणेशो विमलेशिनः । सप्तद्धिंसमवेतः सन् प्रायासीत्परमं पदम् ॥ ३०९ ॥ वारुणी पूर्णचन्द्राख्यो वैडूर्यास्माद्यशोधरा । कापिष्ठकल्पेऽनल्पद्धिर्देवोऽभूद्रचकप्रभः ॥ ३१॥ रत्नायुधोऽन्त्यकल्पोत्थस्ततश्च्युत्वा विभीषणः। द्वितीये नरके पापी श्रीधर्मा ब्रह्मकल्पजः ॥ ३११॥ जयन्तो धरणाधीशो मन्दरो गणनायकः । चतुनिधरः पारमवापजन्मवारिधेः ॥ ३१२॥ 'श्रीभूतिसचिवो नागश्चमरः कुक्कुटाहिकः । तृतीये नरके दुःखी शयुः पङ्कप्रभोद्भवः ॥ ३१३ ॥
स्वयं नहीं तो मेरे अनुरोधसे ही ऐसा नहीं करना चाहिये ॥ २६७॥ धरणेन्द्रने भी उस देवके वचन सुनकर कहा कि यदि ऐसा है तो इसके वंशके पुरुषोंको महाविद्याएँ सिद्ध नहीं होंगी परन्तु इस वंशकी स्त्रियाँ संजयन्त स्वामीके समीप महाविद्याओंको सिद्ध कर सकती हैं। यदि इन अपराधियों को इतना भी दण्ड नहीं दिया जावेगा तो ये दुष्ट अहंकारसे खोटी चेष्टाएँ करने लगेंगे तथा आगे
ले मुनियों पर भी ऐसा उपद्रव करेंगे ॥ २६८-२६४॥ इस घटनासे इस पर्वत परके विद्याधर अत्यन्त लजित हुए थे इसलिए इसका नाम 'ह्रीमान्' पर्वत है ऐसा कहकर उसने उस पर्वत पर अपने भाई संजयन्त मुनिकी प्रतिमा बनवाई ॥३००॥ धर्म और न्यायके अनुसार कहे हुए शान्त वचनोंसे विद्युदंष्ट्रको कालुष्यरहित किया और उस देवकी पूजा कर अपने स्थान पर चला गया।।३०१॥ यह देव अपनी आयुके अन्त में उत्तर मथुरा नगरीके अनन्तवीर्य राजा और मेरुमालिनी नामकी रानीके मेरु नामका पुत्र हुआ ॥ ३०२ ।। तथा धरणेन्द्र भी उसी राजाकी अमितवती रानीके मन्दर नामका पुत्र हुआ। ये दोनों ही भाई शुक्र और बृहस्पतिके समान थे। ३०३ ।। तथा अत्यन्त निकट भव्य थे इसलिए विमलवाहन भगवान्के पास जाकर उन्होंने अपने पूर्वभवके सम्बन्ध सुने एवं दीक्षा लेकर उनके गणधर हो गये ॥३०४ ॥ अब यहाँ इनमेंसे प्रत्येकका नाम लेकर उनकी गति और भवों के समूहका वर्णन करता हूँ-॥३०५॥
सिंहसेनका जीव अशनिघोष हाथी हुआ, फिर श्रीधर देव, रश्मिवेग, अर्कप्रभदेव, महाराज पनायुध, सर्वार्थसिद्धिमें देवेन्द्र और वहाँ से चयकर सञ्जयन्त केवली हुआ। इस प्रकार सिंहसेनने
आठ भवमें मोक्षपद पाया ॥३०६-३०७॥ मधुराका जीव रामदत्ता, भास्करदेव, श्रीधरा, देव, रत्नमाला, अच्युतदेव, वीतभय और आदित्यप्रभदेव होकर विमलवाहन भगवान्का मेरु नामका गणधर हुआ और सात ऋद्धियोंसे युक्त होकर उसी भवसे मोक्षको प्राप्त हुआ ॥ ३०८-३०६ ।। वारुणीका जीव पूर्णचन्द्र, वैडर्यदेव, यशोधरा, कापिष्ठ स्वर्गमें बहुत भारी ऋद्धियोंको धारण करनेवाला रुचकप्रभ नामका देव, रत्नायुध देव, विभीषण पापके कारण दूसरे नरकका नारकी, श्रीधर्मा, ब्रह्मस्वर्गका देव, जयन्त, धरणेन्द्र और विमलनाथका मन्दर नामका गणधर हुआ और चार ज्ञानका धारी होकर संसारसागरसे पार हो गया ॥३१०-३१२ ।। श्रीभूति-(सत्यघोष) मंत्रीका जीव
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१ प्राशान्त क०, घ० । २ मतिर्भबावली व्याख्या ल० ।
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