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महापुराणे उत्तरपुराणम् बन्धुः कः को न वा बन्धुः बन्धुताबन्धुताद्वयम् । संसारे परिवर्तेत 'विदामत्राग्रहः कुतः ॥ १३९॥ कृतापराधे भाता ते विद्युद्देष्टमदण्डयत् । ततोऽयं स्मृततजन्मा मुनेरस्यापकारकः ॥१४॥ अग्रज तव पापोऽयं प्राक्तजन्मचतुष्टये। महावैरानुबन्धेन श्लोकान्तरमजीगमत् ॥१४॥ अस्मिन् जन्मन्यमुं मन्ये मुनेरस्योपकारकम् । खगमेतत् कृतं सोढायन्मुक्तिमयमेयिवान् ॥ १४२॥ आस्तां ताबदिदं भद्र भद्रं नितिकारणम् । प्राक्तनस्यापकारस्य वद केन प्रतिक्रिया ॥ १४३॥ इत्याकर्ण्य फणीन्द्रस्तत्कथ्यतां सा कथा मम । कथमित्यन्वयुङ्क्तासावादित्या समुत्सुकाः ॥ १४४॥ शृणु वैरं विसृज्यास्मिन् बुद्धिमन् शुद्धचेतसा । तत्प्रपञ्चं वदामीति देवो विस्पष्टमभ्यधात् ॥ १४५॥ द्वीपेऽस्मिन् भारते सिंहपुराधीशो महीपतिः। सिंहसेनः प्रिया तस्य रामदत्ताऽभवत्सती ॥ १४६ ॥ श्रीभूतिः सत्यघोषाको मन्त्री तस्य महीपतेः । श्रुतिस्मृतिपुराणादिशास्त्रविद् ब्राह्मणोत्तमः ॥ १४७ ॥ पद्मखण्डपुरे श्रेष्ठिसुदत्ताख्यसुमित्रयोः। भद्रमित्रः सुतो रत्नद्वीपे पुण्योदयात्स्वयम् ॥ १४८॥ उपार्जितपरार्धारुरत्नः सिंहपुरे स्थिरम् । तिष्ठासुर्मन्त्रिणं दृष्ट्वा सर्वमावेद्य तन्मतात् ॥ १४९ ॥ तस्य हस्ते स्वरत्नानि स्थापयित्वा स बान्धवान् । आनेतं पाखण्डाख्यं गत्वा तस्माभिवर्त्य सः॥१५०॥ पुनरभ्येत्य रत्नानि सत्यघोषमयाचत । सोऽपि तद्रत्नमोहेन न जानामीत्यपाहत ॥ १५ ॥
भद्रमित्रोऽपि पूत्कारं सर्वतो नगरेऽकरोत् । सत्यघोषोऽपि पापिठैरेष चौरैरभिद्रुतः ॥ १५२ ॥ रहे हैं। इस संसार में क्या यही तुम्हारा भाई है ? और संसारमें भ्रमण करता हुआ विद्युदंष्ट्र क्या आज तक तुम्हारा भाई नहीं हुआ। इस संसार में कौन बन्धु है ? और कौन बन्धु नहीं है ? बन्धुता और अबन्धुता दोनों ही परिवर्तनशील हैं-आज जो बन्धु हैं वह कल अबन्धु हो सकता है और आज जो अबन्धु है वह कल बन्धु हो सकता है अतः इस विषयमें विद्वानोंको आग्रह क्यों होना चाहिये ? ॥ १३६-१३६ ।। पूर्व जन्ममें अपराध करने पर तुम्हारे भाई संजयन्तने विद्युदंष्ट्रके जीवको दण्ड दिया था, आज इसे पूर्वजन्मकी वह बात याद आ गई अतः इसने मुनिका अपकार किया है ।। १४०। इस पापीने तुम्हारे बड़े भाईको पिछले चार जन्मोंमें भी महावैरके संस्कारसे परलोक भेजा है-मारा है ।। १४१ ।। इस जन्ममें तो मैं इस विद्याधरको इन मुनिराजका उपकार करनेवाला मानता हूँ क्योंकि, इसके द्वारा किये हुए उपसर्गको सहकर ही ये मुक्तिको प्राप्त हुए हैं ॥ १४२ ।। हे भद्र ! इस कल्याण करनेवाले मोक्षके कारणको जाने दीजिये । आप यह कहिये कि पूर्वजन्ममें किये हुए अपकारका क्या प्रतिकार हो सकता है ? ॥ १४३॥
यह सुनकर धरणन्द्रने उत्सुक होकर आदित्याभसे कहा कि वह कथा किस प्रकार है ? आप मुझसे कहिये ।। १४४ ॥ वह देव कहने लगा कि हे बुद्धिमान् ! इस विद्यदंष्ट्र पर वैर छोड़कर शुद्ध हृदयसे सुनो, मैं वह सब कथा विस्तारसे साफ-साफ कहता हूँ॥ १४५ ॥
___ इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्रमें सिंहपुर नगरका स्वामी राजा सिंहसेन था उसकी रामदत्ता नामकी पतिव्रता रानी थी ॥१४६|| उस राजाका श्रीभूति नामका मंत्री था, वह श्रुति स्मृति तथा पुराण आदि शास्त्रोंका जानने वाला था, उत्तम ब्राह्मण था और अपने आपको सत्यघोष कहता था॥१४७॥ उसी देशके पद्मखण्डपुर नगरमें एक सुदत्त नामकासेठ रहता था। उसकी सुमित्रा स्त्रीसे मद्रमित्र नामका पुत्र हवा उसने पुण्योदयसे रत्नद्वीपमें जाकर स्वयं बहुतसे बड़े-बड़े रत्न कमाये । उन्हें लेकर वह सिंहपुर नगर आया
और व स्थायी रूपसे रहनेकी इच्छा करने लगा। उसने श्रीभूति मंत्री से मिलकर सब बात कही और उसकी संमतिसे अपने रत्न उसके हाथमें रखकर अपने भाई-बन्धुओंको लेनेके लिए वह पद्मखण्ड नगरमें गया। जब वहाँसे वापिस आया तब उसने सत्यघोषसे अपने रन माँगे परन्तु रत्नोंके मोहमें पड़कर सत्यघोष बदल गया और कहने लगा कि मैं कुछ नहीं जानता ।। १४८-१५१॥ तब भद्रमित्रने सब नगरमें रोना-चिल्लाना शुरू किया और सत्यघोषने भी अपनी प्रामाणिकता बनाये रखनेके लिए लोगोंको यह बतलाया कि पापी चारोन इसका सब धन लूट लिया है। इसी शोकसे इसका
१ विदामत्र ग्रहः कुतः ग० । विदामतामहः ल०।२ लोकोत्तर ल.।
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