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महापुराणे उत्तरपुराणम्
अभिज्ञानं च तस्यैतदित्युक्त्वा सान्निधानृतः । तदानयेति सन्दिश्य 'धात्री मानीनयत्सदा ॥ १६९ ॥ तत्रान्यानि च रत्नानि क्षिप्त्वा क्षितिभुजा स्वयम् । भद्रमित्रं समाहूय रहस्येतद्भवेत्तव ॥ १७० ॥ इत्युक्तः स भवेद्देव ममैव तत्करण्डकम् । किन्तु रत्नान्यनर्थ्याणि मिश्रितान्यत्र कानिचित् ॥ १७१ ॥ एतानि सन्ति मे नैव ममैतानीति शुद्धधीः । स्वरत्नान्येव सत्योतिर्जग्राहोत्काग्रणीः सताम् ॥ १७२ ॥ सन्तुष्य भूपतिस्तस्मै सत्यघोषाङ्कसङ्गतम् । ज्येष्ठ श्रेष्ठिपदं मद्रमित्रायादित वेदिता ॥ १७३ ॥ सत्यघोषो मृषावादी पापी पापं समाचरन् । धर्माधिकरणोक्तेन दण्ड्यतामिति भूभुजा ॥ १७४ ॥ प्रेरितास्तेन मार्गेण सर्वस्वहरणं तथा । चपेटा वज्रमुष्टाण्यमल्लस्य त्रिंशदूर्जिताः ॥ १७५ ॥ कांस्यपात्रत्रयापूर्णनवगोमयभक्षणम् । इति त्रिविधदण्डेन न्यगृह्णन् पुररक्षकाः ॥ १७६ ॥ नृपेऽनुबन्धवैरः सन् मृत्वार्राध्यानदूषितः । द्विजिह्वोऽगन्धनो नाम भाण्डागारेऽजनिष्ट सः ॥ १७७ ॥ अन्यायेनान्यविरास्य स्वीकारश्चौर्यमुच्यते । नैसर्गिकं निमित्तोत्थं तदेवं द्विविधं स्मृतम् ॥ १७८ ॥ भयमाजन्मनो लोभनिकृष्टस्पर्द्धकोदयात् । सत्यप्यर्थे गृहे स्वस्य कोटीकोव्यादिसङ्ख्यया ॥ १७९ ॥ न चौर्येण विना तोषः सत्याये सति च व्यये । तद्वतस्तादृशो भावः सर्वेषां वा क्षुधार्दितः " ॥ १८० ॥ "स्त्रीसुतादिव्य या शक्तेर्विनार्थादितरद्भवेत् । तच्च लोभोदयेनैव दुर्विपाकेन केनचित् ॥ १८१ ॥
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निपुणमती नामकी धायके हाथमें दोनों चीजें देकर उसे एकान्तमें समझाया कि 'तू श्रीभूति मंत्रीके घर जा और उनकी स्त्रीसे कह कि मुझे मंत्रीने भेजा है, तू मेरे लिए भद्रमित्रको पिटारा दे दे । पहिचान के लिए उन्होंने यह दोनों चीजें भेजी हैं इस प्रकार झूठ-मूठ ही कह कर तू वह रत्नोंका पिटारा ले आ, इस तरह सिखला कर रानी रामदत्ताने धाय भेजकर मंत्रीके घरसे वह रत्नोंका पिटारा बुला लिया ।। १६८ - १६६ ।। राजाने उस पिटारेमें और दूसरे रत्न डालकर भद्रमित्रको स्वयं एकान्त में 'बुलाया और कहा कि क्या यह पिटारा तुम्हारा है ? ।। १७० ।। राजाके ऐसा कहने पर भद्रमित्र ने कहा कि हे देव ! यह पिटरा तो हमारा ही है परन्तु इसमें कुछ दूसरे अमूल्य रत्न मिला दिये गये हैं ।। १७१ || इनमें ये रत्न मेरे नहीं हैं और ये मेरे हैं इस तरह कहकर सच बोलनेवाले, शुद्धबुद्धिके धारक तथा सज्जनोंमें श्रेष्ठ भद्रमित्रने अपने ही रत्न ले लिये ।। १७२ ।। यह जानन कर राजा बहुत ही संतुष्ट हुए और उन्होंने भद्रमित्रके लिए सत्यघोष नामके साथ अत्यन्त उत्कृष्ट सेठका पद दे दिया- भद्रमित्रको राजश्रेष्ठी बना दिया और उसका 'सत्यघोष' उपनाम रख दिया - ॥ १७३ ॥ सत्यघोष मंत्री झूठ बोलनेवाला है, पापी है तथा इसने बहुत पाप किये हैं इसलिए इसे दण्डित किया जावे इस प्रकार धर्माधिकारियोंके कहे अनुसार राजाने उसे दण्ड दिये जानेकी अनुमति दे दी ।। १७४ ।। इस प्रकार राजाके द्वारा प्रेरित हुए नगरके रक्षकोंने श्रीभूति मंत्रीके लिए तीन दण्ड निश्चित किये - १ इसका सब धन छीन लिया जावे, २ वज्रमुष्टि पहलवानके मजबूत तीस घूंसे दिये जावें, और ३ कांसेकी तीन थालोंमें रखा हुआ नया गोबर खिलाया जावे, इस प्रकार नगर के रक्षकोंने उसे तीन प्रकारके दण्डोंसे दण्डित किया ।। १७५-१७६ ।। श्रीभूति राजाके साथ बैर बाँधकर श्रार्तध्यानसे दूषित होता हुआ मरा और मरकर राजा के भाण्डारमें अगन्धन
नामका साँप हुआ || १७७ ।।
अन्यायसे दूसरेका धन ले लेना चोरी कहलाती है वह दो प्रकारकी मानी गई है एक जो स्वभावसे ही होती और दूसरी किसी निमित्तसे ।। १७८ ॥ जो चोरी स्वभावसे होती है वह जन्म से ही लोभ कषायके निकृष्ट स्पर्द्धकोंका उदय होनेसे होती है । जिस मनुष्यके नैसर्गिक चोरी करनेकी आदत होती है उसके घरमें करोड़ोंका धन रहने पर भी तथा करोड़ोंका आय-व्यय होने पर भी चोरी के बिना उसे संतोष नहीं होता । जिस प्रकार सबको क्षुधा आदिकी बाधा होती है उसी प्रकार उसके चोरीका भाव होता है ।। १७६ - १८० ।। जब घरमें स्त्री-पुत्र आदिका खर्च अधिक होता
१ धात्रीमा निधात्तदा (१) ल० । २ इत्युक्ते ख० । ३ निग्रहन् ल० । ४ तदेव ल० । ५ क्षुधादिकाः ० । ६ त्रीद्यूतादि क०, ख०, ग०, घ० ।
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