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महापुराणे उत्तरपुराणम् द्वीपेऽपरविदेहेऽस्मिन् सीतोदानचुदक्कटे । विषये गन्धमालिन्यां वीतशोकपुराधिपः॥ १०९ ॥ पैजयन्तो नृपस्तस्य देव्याः सर्वश्रियः सुतौ । संजयन्तजयन्ताख्यौ राजपुत्रगुणान्वितौ ॥१०॥ तावन्येचुरशोकाख्यवने तीर्थकृतोऽन्तिके । धर्म स्वयम्भुवः श्रुत्वा भोगनिर्वेदचोदितौ ॥११॥ संजयन्ततनूजाय वैजयन्ताय धीमते । दत्त्वा राज्यं समं पित्रा संयम समवापतुः ॥१२॥ सप्तमे संयमस्थाने क्षीणाशेषकषायकः । सामरस्यं समाप्याप वैजयन्तो जिनेशिताम् ॥ ११३॥ पितुः कैवल्यसम्प्राप्तिकल्याणे धरणेशिनः । जयन्तो वीक्ष्य सौन्दर्यमैश्वयं च महन्मुनिः ॥ ११॥ भरणेन्द्रोऽभवन्मृत्वा दुर्मतिः स निदानतः । अत्यल्पं बहुमौल्येन गृहतो न हि दुर्लभम् ॥ ११५॥ भन्येद्यः सम्जयन्ताख्यं प्रतिमायोगधारिणम् । मनोहरपुराभ्यर्णभीमारण्यान्तरे यतिम् ॥१६॥ विद्युईष्टाहयो विद्याधरो वीक्ष्याक्षमो रुषा।पूर्ववैरानुसन्धानस्मृत्युद्भूतातिवेगया ॥ ११७॥ उद्धत्येलाख्ययाप्यद्र्भरतेऽपाग्दिगाश्रिता। नदी कुसुमवत्याख्या हरवत्यभिधा परा ॥१८॥ सुवर्णगजवत्यौ च चण्डवेगा च पन्चमी। न्यक्षिपत्सङ्गमे तासामगाधे सलिले खलः ॥१९॥ अयं पापी महाकायो दानवो मानवाशनः । सर्वानस्मान् पृथग्दृष्ट्वा खादितुं निभृतं स्थितः ॥ १२०॥ शरकुन्तादिशस्त्रौधैनिघृणं सर्वभक्षिणम् । वयं सर्वेऽपि सम्भूय हनामोऽखिलविद्विषम् ॥ १२१ ॥ उपेक्षितोऽयमचैव भुमकुक्षिर्बुभुक्षितः। भक्षयेल्लक्षितोऽवश्यं निशायां स्त्रीः शिशून्पशून् ॥ १२२॥ तस्मान्मद्वचनं यूयं प्रतीत किमहं वृथा। मृषा भाषे किमेतेन वैरमस्त्यत्र मे पृथक ॥ १२३ ॥ इति तेन खगा मुग्धाः पुनः सर्वेऽपि नोदिताः । तथेति मृत्युसन्त्रस्ताः समस्ताः शस्त्रसंहतीः ॥ १२४ ॥ भादाय साधुमूर्धन्यं समाहितमहाधियम् । समन्ताद्धन्तुमारब्धा विश्रब्धं लुब्धकोपमाः ॥ १२५॥
जम्बूद्वीपके पश्चिम विदेह क्षेत्रमें सीतोदा नदीके उत्तर तटपर एक गन्धमालिनी नामका देश है उसके वीतशोक नगरमें वैजयन्त राजा राज्य करता था। उसकी सर्वश्री नामकी रानी थी और उन दोनोंके संजयन्त तथा जयन्त नामके दो पुत्र थे, ये दोनों ही पुत्र राजपुत्रोंके गुणोंसे सहित थे ॥ १०४-११०॥ किसी दूसरे दिन अशोक वनमें स्वयंभू नामक तीर्थंकर पधारे। उनके समीप जाकर दोनों भाइयोंने धर्मका स्वरूप सुना और दोनों ही भोगोंसे विरक्त हो गये ।। १११।। उन्होंने संजयन्तके पुत्र वैजयन्तके लिए जो कि अतिशय बुद्धिमान् था राज्य देकर पिताके साथ संयम धारण कर लिया ॥ ११२॥ संयमके सातवें स्थान अर्थात् बारहवें गुणस्थानमें समस्त कषायोंका क्षय कर जिन्होंने समरसपना पूर्ण वीतरागता प्राप्त कर ली है ऐसे वैजयन्त मुनिराज जिनराज अवस्थाको प्राप्त हुए ॥ ११३ ॥ पिताके केवलज्ञानका उत्सव मनानेके लिए सब देव आये तथा धरणेन्द्र भी
आया। धरणेन्द्रके सौन्दर्य और बहुत भारी ऐश्वर्यको देखकर जयन्त मुनिने धरणेन्द्र होनेका निदान किया। उस निदानके प्रवाहसे वह दुबुद्धि मर कर धरणेन्द्र हुआ सो ठीक ही है क्योंकि बहुत अल्प मूल्यकी वस्तु खरीदना दुर्लभ नहीं है ॥ ११४-११५॥ किसी एक दिन संजयन्त मुनि, मनोहर नगरके समीपवर्ती भीम नामक वनमें प्रतिमा योग धारण कर विराजमान थे॥ ११६ ॥ वहींसे विद्युदंष्ट्र नामका विद्याधर निकला। वह पूर्वभवके वैरके स्मरणसे उत्पन्न हुए तीव्र वेगसे युक्त कोधमे आगे बढ़नेके लिए असमर्थ हो गया। वह दुष्ट उन मुनिराजको उठा लाया तथा भरतक्षेत्रके इला नामक पर्वतकी दक्षिण दिशाकी ओर जहाँ कुसुमवती, हरवती, सुवर्णवती, गजवती और चण्डवेगा इन नदियोंका समागम होता है वहाँ उन नदियोंके अगाध जलमें छोड़ आया ॥ ११७-११६ ।। इतना ही नहीं उसने भोले-भाले विद्याधरोंको निम्नाङ्कित शब्द कहकर उत्तेजित भी किया। वह कहने लगा कि यह कोई बड़े शरीरका धारक, मनुष्योंको खानेवाला पापी राक्षस है, यह हम सबको अलग-अलग देखकर खानेके लिए चुपचाप खड़ा है, इस निर्दय, सर्वभक्षी तथा सर्वद्वेषी दैत्यको हम लोग मिलकर बाण तथा भाले आदि शस्त्रोंके समूहसे मारें, देखो, यह भूखा है, भूखसे इसका पेट झुका जा रहा है, यदि इसकी उपेक्षा की गई तो यह देखते-देखते भाज रात्रिको ही स्त्रियों बच्चों
१ पूर्ननैरानुसम्बन्धात् ग । पूर्ववैरानुबन्धानु-स० ।
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