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महापुराणे उत्तरपुराणम्
मधोः केनापि भूपे च प्रहितं प्राभृतं स्वयम् । घातयित्वोभयोर्वृतौ साधिक्षेपमगृह्यत ॥ ९० ॥ प्रीत्यप्रीतिसमुत्पन्नः संस्कारो जायते स्थिरः । तस्मादप्रीतिमात्मज्ञो न कुर्यात्कापि कस्यचित् ॥ ९१ ॥ आकर्ण्य नारदाद् दूतमृत्युमावेशितक्रुधा । ययावभिमुखं योद्धुं रामकेशवयोर्मधुः ॥ ९२ ॥ तौ च संग्रामसद्धौ क्रुद्धौ युद्धविशारदौ । प्रापतुः सहसा हन्तुं तं यमानलसन्निभौ ॥ ९३ ॥ सैन्ययोरुभयोरासीत् संग्रामः संहरन्निव । परस्परं चिरं घोरः शूरयोर्भीरुभीप्रदः ॥ ९४ ॥ स्वयम्भुर्वं समुद्दिश्य तदा सोढा मधुः क्रुधा । ज्वलच्चक्रं विवर्त्याशु न्यक्षिपत्तजिघांसया ॥ ९५ ॥ तद्गत्वाऽऽशु परीत्यैनं भुजाग्रे दक्षिणे स्थितम् । अवतीर्य मरुग्मार्गाद्भास्करस्येव मण्डलम् ॥ ९६ ॥ तदेवादाय सक्रोधः स्वयम्भूर्विद्विषं प्रति । प्रहित्यादादसुंस्तस्य किं न स्यात् सुकृतोदयात् ॥ ९७ ॥ आधिपत्यं तदावाप्य भरतार्द्धस्य केशवः । वासवो वोऽन्वभूद्भोगानिर्विघ्नं स्वाप्रजान्वितः ॥ ९८ ॥ मधुः सत्त्वं समुत्सृज्य भूयः संश्रितवान् रजः । बद्ध्वायुर्नारकं प्रापश्चिरयं स तमस्तमः ॥ ९९ ॥ केशवोऽपि तमन्वेष्टुमिव वैरानुबन्धनात् । तदेव नरकं पश्चात्प्राविक्षत् पापपाकतः ॥ १०० ॥ बलोsपि तद्वियोगोत्थशोकसन्तप्तमानसः । निविंद्य संसृतेः प्राप्य जिनं विमलवाहनम् ॥ १०१ ॥ I सामायिक समादाय संयमं संयताग्रणीः । "विग्रहे ६विग्रहीवोयं निर्व्यग्रमकरोत्रापः ॥ १०२ ॥ सद्वृत्तस्तेजसो मूर्तिर्धुन्वन्नभ्युदितस्तमः । असम्बाधमगादूर्ध्वं भास्वानिव बलोऽमलः ॥
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वैरका संस्कार होनेसे राजा स्वयंभू मधुका नाम सुनने मात्रसे कुपित हो जाता था ॥ ८६ ॥ किसी समय किसी राजाने राजा मधुके लिए भेंट भेजी थी, राजा स्वयंभूने दोनोंके दूतोंको मारकर तिरस्कारके साथ वह भेंट स्वयं छीन ली ॥ ६० ॥ आचार्य कहते हैं कि प्रेम और द्वेषसे उत्पन्न हुआ संस्कार स्थिर हो जाता है इसलिए आत्मज्ञानी मनुष्यको कहीं किसीके साथ द्वेष नहीं करना चाहिए ॥ ६१ ॥ जब मधुने नारदसे दूतके मरनेका समाचार सुना तो वह क्रोधित होकर युद्ध करनेके लिए बलभद्र और नारायणके सन्मुख चला ॥ ६२ ॥ इधर युद्ध करनेमें चतुर तथा कुपित बलभद्र और नारायण युद्धके लिए पहले से ही तैयार बैठे थे अतः यमराज और अभिकी समानता रखनेवाले वे दोनों राजा मधुको मारनेके लिए सहसा उसके पास पहुँचे ।। ६३ ।। दोनों शूरकी सेनाओंमें परस्परका संहार करनेवाला तथा कायर मनुष्योंको भय उत्पन्न करनेवाला चिरकाल तक घमासान् . युद्ध हुआ ॥ ६४ ॥ अन्तमें राजा मधुने कुपित होकर स्वयंभू को मारनेके उद्देश्यसे शीघ्र ही जलता हुआ चक्र घुमा कर फेंका ।। ६५ ।। वह चक्र शीघ्रताके साथ जाकर तथा प्रदक्षिणा देकर स्वयंभूकी दाहिनी भुजाके अग्रभाग पर ठहर गया । उस समय वेह ऐसा जान पड़ता था मानो आकाशसे उतरकर सूर्यका बिम्ब ही नीचे आ गया हो ||१६|| उसी समय राजा स्वयंभूने कुपित होकर वह चक्र शत्रुके प्रति फेंका सो ठीक ही है क्योंकि पुण्योदयसे क्या नहीं होता ? ॥ ६७ ॥ उसी समय स्वयंभूनारायण, आधे भरत क्षेत्रका राज्य प्राप्त कर इन्द्रके समान अपने बड़े भाईके साथ उसका निर्विघ्न उपभोग करने लगा || ६८ ॥ राजा मधुने प्राण छोड़कर बहुत भारी पापका संचय किया जिससे नरका बाँध कर तमस्तम नामक सातवें नरकमें गया ॥ ६६ ॥ और नारायण स्वयंभू भी वैरके संस्कारसे उसे खोजने के लिए ही मानो अपने पापोदयके कारण पीछे से उसी नरकमें प्रविष्ट हुआ ॥ १०० ॥ स्वयंभू वियोगसे उत्पन्न हुए शोकके द्वारा जिसका हृदय संतप्त हो रहा था ऐसा बलभद्र धर्म भी संसार से विरक्त होकर भगवान् विमलनाथके समीप पहुँचा ।। १०१ ।। और सामायिक संयम धारण कर संयमियोंमें अग्रेसर हो गया । उसने निराकुल होकर इतना कठिन तप किया मानो शरीरके साथ विद्वेष ही ठान रक्खा हो ।। १०२ ।। उस समय बलभद्र ठीक सूर्यके समान जान पड़ते थे क्योंकि जिस प्रकार सूर्य सद्वृत्त अर्थात् गोलाकार होता है उसी प्रकार बलभद्र भी सद्वृत्त सदाचार से युक्त थे, जिस प्रकार सूर्य तेजकी मूर्ति स्वरूप होता है उसी प्रकार बलभद्र भी तेजकी मूर्ति स्वरूप
१ स्थितिः ग० । २ प्रहित्य प्रदात् असून् तस्य इति पदच्छेदः । ३ संसृतिवीजजम् ल० । ४ नारकं क०, घ० । ५ विग्रहे शरीरे । ६ विग्रही विद्व ेषी ।
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