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एकोनषष्टितमं पर्व
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महागुणेषु यत्सत्यमुक्तं प्राग् हार्यते हि तत् । द्यूतासक्तेन लज्जाभिमानं पश्चात्कुलं सुखम् ॥ ७६ ॥ सौजन्यं बन्धवो धर्मो द्रव्यं क्षेत्रं गृहं यशः । पितरौ दारका दाराः स्वयं चातिप्रसङ्गतः ॥ ७७ ॥ न स्नानं भोजनं स्वापो निरोधाद्रोगमृच्छति । न यात्यर्थान् वृथा क्लेशी बहुदोषं चिनोत्यघम् ॥ ७८ ॥ करोति कुत्सितं कर्म जायते पारिपन्थिकः । याचतेऽन्येषु 'वार्थार्थमकार्येषु प्रवर्तते ॥ ७९ ॥ बन्धुभिः स परित्यक्तो राजभिर्याति यातनाम् । इति द्यूतस्य को दोषानुदेष्टुमपि शक्नुयात् ॥ ८० ॥ सुकेतुरेव दृष्टान्तो येन राज्यं च हारितम् । तस्माल्लोकद्वयं वान्छन् दूरतो द्यूतमुत्सृजेत् ॥ ८१ ॥ सुकेतुरिति सर्वस्वहानिशोकाकुलीकृतः । गत्वा सुदर्शनाचार्य पादमूलं श्रुतागमः ॥ ८२ ॥ सद्यो निर्विद्य संसारात्प्रव्रज्याप्यशुभाशयः ३ । शोकादनं समुत्सृज्य तपोभिरतिदुष्करैः ॥ ८३ ॥ दीर्घकालमलं तप्त्वा कलागुणविदग्धता । बलं चैतेन मे भूयात्तपसेत्यायुषः क्षये ॥ ८४ ॥ कृत्वा निदानं संन्यस्य लान्तवकल्पमास्थितः । तत्र दिव्यसुखं प्रापत्स चतुर्दशसागरम् ॥ ८५ ॥ ततः सोऽप्यवतीर्यात्र भद्रस्यैव महीभुजः । बभूव पृथिवीदेव्यां स्वयम्भूः सूनुषु प्रियः ॥ ८६ ॥ धर्मो बलः स्वयम्भूश्च केशवस्तौ परस्परम् । अभूतां प्रीतिसम्पन्नावन्वभूतां श्रियं चिरम् ॥ ८७ ॥ सुकेतुजातौ द्यूतेन निर्जित्य बलिना हठात् । स्वीकृतं येन तद्राज्यं सोऽभूद्रत्नपुरे मधुः ॥ ८८ ॥ तज्जन्मवैरसंस्कारसमेतेनाधुनामुना । तचामश्रुतिमात्रेण सकोपेन स्वयम्भुवा ॥ ८९ ॥
होनेवाले मद्य, मांस और शिकार इन तीन व्यसनोंमें तथा कामसे उत्पन्न होनेवाले जुआ, चोरी, वेश्या और परस्त्रीसेवन इन चार व्यसनोंमें जुआ खेलनेके समान कोई नीच व्यसन नहीं है ऐसा सब शास्त्रकार कहते हैं ।। ७५ ।। जो सत्य महागुणोंमें कहा गया है जुआ खेलनेमें आसक्त मनुष्य उसे सबसे पहले हारता है। पीछे लज्जा, अभिमान, कुल, सुख, सज्जनता, बन्धुवर्ग, धर्म, द्रव्य, क्षेत्र, घर, यश, माता-पिता, बाल-बच्चे, स्त्रियाँ और स्वयं अपने आपको हारता है- नष्ट करता है। जुआ खेलनेवाला मनुष्य अत्यासक्तिके कारण न स्नान करता है, न भोजन करता है, न सोता है और इन आवश्यक कार्योंका रोध हो जानेसे रोगी हो जाता है। जुआ खेलनेसे धन प्राप्त होता हो सो बात नहीं, वह व्यर्थ ही क्लेश उठाता है, अनेक दोष उत्पन्न करनेवाले पापका संचय करता है, निन्ध कार्य कर बैठता है, सबका शत्रु बन जाता है, दूसरे लोगोंसे याचना करने लगता है और धनके लिए नहीं करने योग्य कर्मोंमें प्रवृत्ति करने लगता है । बन्धुजन उसे छोड़ देते हैं-घरसे निकाल देते हैं, एवं राजाकी ओरसे उसे अनेक कष्ट प्राप्त होते हैं। इस प्रकार के दोषोंका नामोल्लेख करनेके लिए भी कौन समर्थ है ? ।। ७६ -८० ।। राजा सुकेतु ही इसका सबसे अच्छा दृष्टान्त है क्योंकि वह इस जुआके द्वारा अपना राज्य भी हरा बैठा था । इसलिए जो मनुष्य अपने दोनों लोकोंका भला चाहता है वह जुमाको दूरसे ही छोड़ देवे ॥ ८१ ॥ इस प्रकार सुकेतु जब अपना सर्वस्व हार चुका तब शोकले व्याकुल होकर सुदर्शनाचार्यके चरण- मूलमें गया । वहाँ उसने जिनागमका उपदेश सुना और संसारसे विरक्त होकर दीक्षा धारण कर ली । यद्यपि उसने दीक्षा धारण कर ली थी तथापि उसका आशय निर्मल नहीं हुआ था । उसने शोकसे अन्न छोड़ दिया और अत्यन्त कठिन तपश्चरण किया ॥ ८२-८३ ॥ इस प्रकार दीर्घकाल तक तपश्चरण कर उसने युके अन्तिम समयमें निदान किया कि इस तपके द्वारा मेरे कला, गुण, चतुरता और बल प्रकट हो ॥ ८४ ॥ ऐसा निदान कर वह संन्यास-मरणसे मरा तथा लान्तव स्वर्गमें देव हुआ। वहाँ चौदह सागर तक स्वर्गीय सुखका उपभोग करता रहा ।। ८५ । वहाँ से चयकर इसी भरत क्षेत्रकी द्वारावती नगरीके भद्र राजाकी पृथिवी रानी स्वयंभू नामका पुत्र हुआ । यह पुत्र राजाको सब पुत्रोंमें अधिक प्यारा था ॥ ८६ ॥ धर्म बलभद्र था और स्वयंभू नारायण था । दोनोंमें ही परस्पर अधिक प्रीति थी और दोनों ही चिरकाल तक राज्यलक्ष्मीका उपभोग करते रहे ॥ ८७ ॥ सुकेतुकी पर्यायमें जिस बलवान् राजाने जुआ में सुकेतुका राज्य छीन लिया था वह मर कर रत्नपुर नगरमें राजा मधु हुआ था ॥ ८८ ॥ पूर्व जन्मके
१ वा श्रर्थार्थे धनार्थम् । २ सुदर्शनाचार्यपाद ल० । ३ यशुभाशयं ग०, घ०, क०, 1
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