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एकोनषष्टितम पर्व
वसन्ततिलका यूतेन मोहविहितेन विधीः स्वयम्भूः
यातो मधुश्च नरकं दुरिती दुरन्तम् । धर्मादिकं त्रितयमेव कुमार्गवृत्त्या
हेतुः श्रितं भवति दुःखपरम्परायाः ॥ १० ॥ क्रोधादिभिः सुतपसोऽपि भवेन्निदानं
तत्स्याद् दुरन्तदुरितोर्जितदुःखहेतुः । तेनाप मुक्तिपथगोऽप्यपथं सुकेतुस्त्याज्यं ततः खलसमागमवन्निदानम् ॥ १०५॥
मालिनी चतिविनिहतमित्रो मित्रनन्दी क्षितीशो
यमसमितिसमग्रोऽनुराधीश्वरोऽभूत् । अनुधरणिमितः सन् द्वारवत्यां 'सुधर्मः परमपदमवापत्साधितात्मस्वरूपः ॥ १०६ ॥
प्रथ्वी कुणालविषये सुकेतुरधिराडभूद् दुर्मति
स्ततः कृततपाः सुरोऽजनि सुखालये लान्तवे । कृतान्तसशो मधोरनुबभूव चक्रेश्वर
स्ततश्च दुरितोदयाक्षितिमगात्स्वयम्भरधः ॥ १०७ ॥ जिमस्यास्यैव तीर्थेऽग्यो गणेशौ मेरुमन्दरौ । तुङ्गो स्थिरौ सुरैः सेव्यौ वक्ष्यामश्चरितं तयोः ॥ १०८ ॥
थे, जिस प्रकार सूर्य उदित होते ही अन्धकारको नष्ट कर देता है उसी प्रकार बलभद्रने मुनि होते ही अन्तरङ्गके अन्धकारको नष्ट कर दिया था, जिस प्रकार सूर्य निर्मल होता है उसी प्रकार बलभद्र भी कर्ममलके नष्ट हो जानेसे निर्मल थे और जिस प्रकार सूर्य बिना किसी रुकावटके ऊपर आकाशमें गमन करता है उसी प्रकार बलभद्र भी बिना किसी रुकावटके ऊपर तीन लोकके अग्रभाग प विराजमान हुए ॥ १०३ ।। देखो, मोह वश किये हुए जुआसे मूर्ख स्वयंभू और राजा मधु पापका संचय कर दुखदायी नरकमें पहुँचे सो ठीक ही है क्योंकि धर्म, अर्थ, काम इन तीनका योद कुमार्ग वृत्तिसे सेवन किया जावे तो यह तीनों ही दुःख-परम्पराके कारण हो जाते हैं ॥ १०४ ॥ कोई उत्तम तपश्चरण करे और क्रोधादिके वशीभूत हो निदान-बंध कर ले तो उसका वह निदान-बन्ध अर्मा पापसे उत्पन्न दुःखका कारण हो जाता है। देखो, सुकेतु यद्यपि मोक्षमार्गका पथिक था तो भी निदान-बन्धके कारण कुगतिको प्राप्त हुआ अतः दुष्ट मनुष्यकी संगतिके समान निदान-बन्ध दूरसे ही छोड़ने योग्य है ॥ १०५ । धर्म, पहले अपनी कान्तिसे सूर्यको जीतनेवाला मित्रनन्दी नामका राजा हुआ, फिर महाव्रत और समितियोंसे सम्पन्न होकर अनुत्तरविमानका स्वामी हुआ, वहाँसे चयकर पृथिवीपर द्वारावती नगरीमें सुधर्म बलभद्र हुआ और तदनन्तर आत्म-स्वरूपको सिद्धकर मोक्ष पदको प्राप्त हुआ ॥ १०६॥ स्वयंभू पहले कुणाल देशका मूर्ख राजा सुकेतु हुआ, फिर तपश्चरण कर सुखके स्थान-स्वरूप लान्तव स्वर्गमें देव हुआ, फिर राजा मधुको नष्ट करनेके लिए यमराजके समान चक्रपति-नारायण हुआ और तदनन्तर पापोदयसे नीचे सातवीं पृथिवीमें गया ॥ १०७ ॥
अथानन्तर-इन्हीं विमलवाहन तीर्थकरके तीर्थमें अत्यन्त उन्नत, स्थिर और देवोंके द्वारा सेवनीय मेरु और मन्दर नामके दो गणधर हुए थे इसलिए अब उनका चरित कहते हैं ॥ १०८।।
१ सुवर्मः ल।
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