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चतुःपञ्चाशत्तमं पर्व
जलाशयाश्च सुस्वच्छाः सुखभोग्याः सपद्मकाः । सन्तम्मच्छेदिनोऽगाधा मनोनयनहारिणः ॥ १३ ॥ क्षेत्राणि सर्वधान्यानि सर्वतपणि सर्वदा । सम्पन्नानि महीभर्तुः कोष्टागाराणि वा बभुः ॥ १४॥ ग्रामाः कुक्कुटसम्पात्याः सारा बहुकृषीवलाः । पशुधान्यधनापूर्णाः नित्यारम्भा' निराकुलाः ॥ १५ ॥ वीतदण्डादिबाधत्वाचिगमाः सर्वसम्पदः । वर्णाश्रमसमाकीर्णास्ते स्थानीयानुकारिणः ॥ १६॥ असवारिपथोपेतः सफलाकण्टकद्रुमः । अदृष्टाष्टभयः प्रान्तवीधितन्वीयनाश्रयः ॥ १७ ॥ यद्यज्जनपदस्योक्तं नीतिशास्त्रविशारदैः । लक्षणं तस्य तस्यायं देशो लक्ष्यत्वमीयिवान् ॥ १८ ॥ हानिर्धनस्य सत्पात्रे सत्क्रियायाः फलावधौ । उन्नतेविनयस्थाने प्राणस्य परमायुषि ॥ १९ ॥ तुङ्गेषु कुचयोरेव काठिन्यमतिवर्तते । गजेष्वेव प्रपातोऽपि तरुष्वेव उदरीरिषु ॥ २० ॥
दण्ड छत्रे तुलायाञ्च नागरादिषु तीक्ष्णता । रोधनं सेतुबन्धेषु शब्दशास्त्रेऽपवादभाक् ॥ २१॥ सहित थे, जिस प्रकार तपस्वी वीतदोष-दोपोंसे रहित होते हैं उसी प्रकार किसान भी वीतदीपनिर्दोष थे अथवा खेतीकी रक्षाके लिए दोषाएँ-रात्रियाँ व्यतीत करते थे, जिस प्रकार तपस्वी क्षुधा तृषा आदि कष्ट सहन करते हैं उसी प्रकार किसान भी क्षुधा तृपा आदिके कष्ट सहन करते थे । इस प्रकार सादृश्य होनेपर भी किसान तपस्वियोंसे आगे बढ़े हुए थे उसका कारण था कि तपस्वी मनुष्योंके आरम्भ सफल भी होते थे और निष्फल भी चले जाते थे परन्तु किसानों के आरम्भ निश्चित रूपसे सफल ही रहते थे ।। १२ ।। वहांके सरोवर अत्यन्त निर्मल थे, सुखसे उपभोग करनेके योग्य थे, कमलों से सहित थे, सन्तापका छेद करनेवाले थे, अगाध - गहरे थे और मन तथा नेत्रोंको हरण करनेवाले थे ।। १३ ।। वहांके खेत राजाके भाण्डारके समान जान पड़ते थे, क्योंकि जिस प्रकार राजाओं के भाण्डार सब प्रकारके अनाज से परिपूर्ण रहते हैं उसी प्रकार वहांके खेत भी सब प्रकारके अनाज से परिपूर्ण रहते थे, राजाओंके भांडार जिस प्रकार हमेशा सबको संतुष्ट करते हैं उसी प्रकार वहां के खेत भी हमेशा सबको सन्तुष्ट रखते थे, और राजाओंके भंडार जिस प्रकार सम्पन्न - सम्पत्तिमे युक्त रहते हैं उसी प्रकार वहांके खेत भी धान्यरूपी सम्पत्तिले सम्पन्न रहते थे अथवा 'समन्तान् पन्नाः सम्पन्नाः' सब ओरसे प्राप्त करने योग्य थे ।। १४ ।। वहांके गाँव इतने समीप थे कि मुर्गा भी एकसे उड़ कर दूसरे पर जा सकता था, उत्तम थे, उनमें बहुतसे किसान रहते थे, पशु धन धान्य आदिसे परिपूर्ण थे । उनमें निरन्तर काम-काज होते रहते थे तथा सब प्रकार से निराकुल थे ।। १५ ।। वे गांव दण्ड आदिकी वाधासे रहित होनेके कारण सर्व सम्पत्तियोंसे सुशोभित थे, वर्णाश्रम से भरपूर थे और वहीं रहने वाले लोगोंका अनुकरण करनेवाले थे ।। १६ ।। वह देश ऐसे मार्गों से सहित था जिनमें जगह-जगह कंधों पर्यन्त पानी भरा हुआ था, अथवा जो असंचारी - दुर्गम थे, अथवा जो असंवारि - आने जानेकी रुकावट से रहित थे। वहांके वृक्ष फलोंसे लदे हुए तथा कांटोंसे रहित थे आठ प्रकार के भयोंमें से वहाँ एक भी भय दिखाई नहीं देता था और वहांके वन समीपवर्ती गलियों रूपी स्त्रियोंके आश्रय थे ।। १७ ।। नीतिशास्त्र के विद्वानोंने देशके जो जो लक्षण कहें हैं यह देश उन सबका लक्ष्य था अर्थात् वे सत्र लक्षण इसमें पाये जाते थे ।। १८ ।। उस देशमें धनकी हानि सत्पात्रको दान देते समय होती थी अन्य समय नहीं । समीचीन क्रियाकी हानि फल प्राप्त होने पर ही होती थी अन्य समय नहीं । उन्नतिकी हानि विनयके स्थान पर होती थी अन्य स्थान पर नहीं, और प्राणोंकी हानि आयु समाप्त होने पर ही होती थी अन्य समय नहीं ॥ १६ ॥ ऊँचे उठे हुए पदार्थों में यदि कठोरता थी तो स्त्रियोंके स्तनोंमें ही थी अन्यत्र नहीं थी । प्रपात यदि था तो हाथियोंमें ही था अर्थात् उन्हींका मद भरता था अन्य मनुष्यों में प्रपात अर्थात् पतन नहीं था । अथवा प्रपात था तो गुहा आदि निम्न स्थानवर्ती वृक्षोंमें ही था अन्यत्र नहीं ॥ २० ॥ वहाँ यदि दण्ड था तो छत्र अथवा तराजूमें ही था वहांके मनुष्योंमें दण्ड नहीं था अर्थात् उनका कभी जुर्माना नहीं होता था । तीक्ष्णता तेजस्विता यदि थी तो कोतवाल आदिमें ही, वहांके मनुष्योंमें तीक्ष्णता
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१ नित्यारम्भनिराकुलाः ख०, ग० 1 २ संचारिपथो ख०, ग० । ३ संवारि क० ।
४ दरीषु च०, ल०
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