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चतुःपश्चाशत्तम पर्व
अभितां वानपदवीं रत्नगर्भामिव क्षितिम् । उपोदयाको प्राची वा तां ददर्श दृशः सुखम् ॥ ६३ ॥ सापि दृष्ट्रा महीनाथमभ्युत्थातुं कृतोद्यमा । तथैव देवि तिष्ठेति स्थिता राज्ञा निवारिता ॥ ६४ ॥ नृपस्तयैकशय्यायामुपविश्य चिरं मुदा । सलज्जया सहालाप्य ययौ तदुचितोक्तिभिः ॥६५॥ दिनेषु केषुचित्पश्चाद्यातेषु प्रकटीभवत् । प्राक् पुण्याद् गुरुशुक्रादिशुभग्रहनिरीक्षणात् ॥ ६६ ॥ हरेहरिदिवादित्यं सस्यपार्क यथा शरत् । महोदयमिवाख्यातिरसूत सूतमुत्तमम् ॥ ६७ ॥ प्रवर्द्धमानभाग्यस्य योग्यस्य सकलश्रियः । श्रीवर्मेति शुभं नाम तस्य बन्धुजनो व्यधात् ॥ ६८ ॥ प्रबोधो मूछितस्येव दुविधस्येव वा निधिः । जयो वात्यल्पसैन्यस्य राज्ञस्तोषं चकार सः ॥ ६९ ॥ तस्याङ्गन्तेजसा रत्नदीपिका विहतत्विषः । विभावर्या सभास्थाने नैरर्थक्यं प्रपेदिरे ॥ ७० ॥ शरीरवृद्धिस्तस्यासीद् भिषक्शास्त्रोक्तवृत्तितः। १शब्दशास्त्रादिभिः प्रज्ञावृद्धिः सुविहितक्रियाः ॥ ७१ ॥ स राजा तेन पुत्रेण द्वीपोऽयमिव मेरुणा । तुङ्गेन सङ्गतः श्रीमान् पालयन् वलयं क्षितेः ॥ ७२ ॥ जिनं श्रीपवनामानमवतीर्ण यदृच्छया। शिवङ्करवनोद्याने कदाचिद्वनपालतः ॥ ७३ ॥ श्रुत्वा सप्तपदानीत्वा तां दिशं शिरसाऽनमत् । तदानीमेव सम्प्राप्य विश्वेशं प्रश्रयाश्रयः ॥ ७ ॥ त्रिःपरीत्य नमस्कृत्य तं यथास्थानमास्थितः । कृत्वा धर्मपरिप्रश्नं बुद्ध्या श्वस्त यथोदितम् ॥ ७५ ॥ भोगतृष्णामपास्याशु धर्मतृष्णातमानसः । दत्त्वा श्रीवर्मणे राज्यं प्रावाजीराजिनान्तिके ॥ ७६॥
इच्छिल पुरस्कार दिया और द्विगुणित आनन्दित होता हुआ कुछ प्राप्त जनों के साथ वह रानीके घर गया ।। ६२ ।। वहाँ उसने नेत्रोंको सुख देनेवाली रानीको ऐसा देखा माना मेघप्ते युक्त आकाश ही हो, अथवा रत्नगर्भा पृथिवी हो अथवा उदय होनेके समीपवर्ती सूर्यसे युक्त पूर्व दिशा ही हो ॥६३ ॥राजाको देखकर रानी खड़ी होनेकी चेष्टा करने लगी परन्तु 'हे देवि, बैठी रहो' इस प्रकार राजाके मना किये जाने पर बैठी रही।। ६४॥ राजा एक ही शय्या पर चिरकाल तक रानीके साथ बैठा रहा और लज्जा सहित रानीके साथ योग्य वार्तालाप कर हर्षित होता हुआ वापिस चला गया ॥६५॥
तदनन्तर कितने ही दिन व्यतीत हो जाने पर पुण्य कर्मके उदयसे अथवा गुरु शुक्र आदि शुभ ग्रहों के विद्यमान रहते हुए उसने जिस प्रकार इन्द्रकी दिशा (प्राची) सूर्यको उत्पन्न करती है, शरद्ऋतु पके हुए धानको उत्पन्न करती है और कीर्ति महोदयको उत्पन्न करती है उसी प्रकार रानीने उत्तम पुत्र उत्पन्न किया ॥६६-६७ ।। जिसका भाग्य बढ़ रहा है और जो सम्पूर्ण लक्ष्मी पानेके योग्य है ऐसे उस पुत्रका बन्धुजनोंने 'श्रीवर्मा' यह शुभ नाम रक्खा ॥ ६८ ।। जिस प्रकार मूच्छितको सचेत होनेसे संतोष होता है, दरिद्रको खजाना मिलनेसे संतोष होता है और थोड़ी सेनावाले राजाको विजय मिलनेते संतोष होता है उसी प्रकार उस पुत्र-जन्मसे राजाको संतोष हुआ था ।। ६६॥ उस पुत्रके शरीरके तेजसे जिनकी कान्ति नष्ट हो गई है ऐसे रत्नोंके दीपक रात्रिके समय सभा-भवनमें निरर्थक हो गये थे ।। ७० ।। उसके शरीरकी वृद्धि वैद्यक शास्त्रमें कही हुई विधिके अनुसार होती थी और अच्छी क्रियाओंको करनेवाली बुद्धिकी वृद्धि व्याकरण आदि शास्त्रोंके अनुसार हुई थी ।। ७१ ॥ जिस प्रकार यह जम्बूद्वीप ऊँचे मेरु पर्वतसे सुशोभित होता है उसी प्रकार पृथिवी-मंडलका पालन करनेवाला यह लक्ष्मी-सम्पन्न राजा उस श्रेष्ठ पुत्रसे सुशोभित हो रहा था॥७२॥ किसी एक दिन शिवंकर वनके उद्यानमें श्रीपद्म नामके जिनराज अपनी इच्छासे पधारे थे। वनपालसे यह समाचार सुनकर राजाने उस दिशामें सात कदम जाकर शिरसे नमस्कार किया और बड़ी विनयके साथ उसी समय जिनराजके पास जाकर तीन प्रदक्षिणाएँ दीं, नमस्कार किया,और यथास्थान आसन ग्रहण किया । राजाने उनसे धर्मका स्वरूप पूछा, उनके कहे अनुसार वस्तु तत्त्वका ज्ञान प्राप्त किया, शीघ्र ही भोगोंकी तृष्णा छोड़ी, धर्मकी तृष्णामें अपना मन लगाया, श्रीवर्मा पुत्रके
१ सर्वशास्त्रादिभिः ग० । २ धर्म यथोदितम् ल० ।
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