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महापुराणे उत्तरपुराणम् न स्थिरं क्षणिकं ज्ञानमात्रं शून्यमनीक्षणात्' । वस्तु प्रतिक्षणं तत्त्वान्यत्वरूपं तवेक्षणात् ॥ २६४ ॥ अस्त्यात्मा बोधसनावात्परजन्मास्ति तत्स्मृतेः । सर्वविञ्चास्ति धीवृद्धस्त्वदुपज्ञमिदं त्रयम् ॥ २६५॥ द्रव्याद् द्रव्यस्य वा भेद गुणस्याप्यवदद्विधीः । गुणैः परिणतिं द्रव्यस्यावादीस्त्वं यथार्थरक ॥ २६६ ।। अप्रतीपा प्रभा भाति देव देहस्य तेऽनिशम् । चन्द्रप्रभेति नामेदमपरीक्ष्य हरिबंधात् ॥ २६७ ॥ इति शब्दार्थगम्भीरस्तवनेन सुराधिपः । चिरं सपुण्यमात्मानं बहुमेने स हृष्टधीः ॥ २६८ ॥ अथ चन्द्रप्रभः स्वामी धर्मतीर्थ प्रवर्तयन् । सर्वान् देशान् विहृत्यार्यान् सम्मेदतलमाप्तवान् ॥ २६९॥ विहारमुपसंहृत्य मासं सिद्धशिलातले। प्रतिमायोगमास्थाय सहस्त्रमुनिभिः सह ॥ २७॥ फाल्गुने शुक्लसप्तम्यां ज्येष्ठाचन्द्रेऽपराह्नके । तृतीयशुक्लध्यानेन कृतयोगनिरोधकः ॥ २७१ ॥ अयोगपदमासाद्य तुर्यशुक्लेन निर्हरन् । शेषकर्माणि निलृप्तशरीरः परमोऽभवत् ॥ २७२ ॥ सुरा निर्वाणकल्याणपूजाविधिविधायिनः । पुण्यपण्यं समादाय तदेयुः स्वस्वमास्पदम् ॥ २७३ ॥
शार्दूलविक्रीडितम् सम्पूर्णः किमयं शरच्छशधरः किं वापिंतोदर्पणः
सर्वार्थावगतः किमेष विलसत्पीयषपिण्डः पृथुः । किं पुण्याणुमयश्चयोऽयमिति यद्वक्त्राम्बुज शङ्कयते
सोऽयं चन्द्रजिनस्तमो व्यपहरन्नहोभयानक्षतात् ॥ २७४ ।।
फिर, अन्य पदार्थोंकी तो बात ही क्या है ? ॥२६३ ।। हे भगवन् ! कोई भी वस्तु न नित्य है, न क्षणिक है, न ज्ञानमात्र है और न अदृश्य होनेसे शून्य रूप है किन्तु आपके दर्शनसे प्रत्येक वस्तु तत्त्व और अतत्त्व रूप-अस्ति और नास्ति रूप है ।। २६४ ॥ आत्मा है, क्योंकि उसमें ज्ञानका सद्भाव है, आत्मा दूसरा जन्म धारण करता है क्योंकि उसका स्मरण बना रहता है, और आत्मा सर्वज्ञ है क्योंकि ज्ञानमें वृद्धि देखी जाती है। हे भगवन् ! ये तीनों ही सिद्धान्त आपके ही कहे हुए हैं ॥ २६५ ॥ जिस प्रकार एक द्रव्यसे दूसरा द्रव्य जुदा है उसी प्रकार द्रव्यसे गुण भी जुदा है ऐसा कितने ही बुद्धिहीन मनुष्य कहते हैं परन्तु आपने कहा है कि द्रव्यका परिणमन गुणोंसे ही होता है अर्थात् द्रव्यसे गुण सर्वथा जुदा पदार्थ नहीं है । इसीलिए आप यथार्थद्रष्टा हैं आप पदार्थक स्वरूपको ठीक-ठीक देखते हैं ॥२६६ ॥ हे नाथ ! चन्द्रमाकी प्रभा तो राहुसे तिरोहित हो जाती है परन्तु आपके शरीरकी प्रभा बिना किसी प्रतिबन्धके रात-दिन प्रकाशित रही आती है अतः इन्द्रने जो आपका 'चन्द्रप्रभ' (चन्द्रमा जैसी प्रभावाला) नाम रक्खा है वह बिना परीक्षा किये ही रख दिया है ॥२६७ ।। इस प्रकार जिसमें शब्द और अर्थ दोनों ही गंभीर हैं ऐसे स्तवनसे प्रसन्न बुद्धिके धारक इन्द्रने अपने आपको चिरकालके लिए बहुत ही पुण्यवान् माना था ।
अथानन्तर चन्द्रप्रभ स्वामी समस्त आर्य देशोंमें विहार कर धर्म-तीर्थकी प्रवृत्ति करते हुए सम्मेदशिखर पर पहुँचे ।। २६६ ॥ वहाँ वे विहार बन्द कर एक हजार मुनियोंके साथ प्रतिमायोग धारण कर एक माह तक सिद्धशिला पर आरूढ रहे ।। २७० ।। और फाल्गुन शुक्ल सप्तमीके दिन ज्येष्ठा नक्षत्र में सायंकालके समय योग-निरोध कर चौदहवें गुणस्थानको प्राप्त हुए तथा चतुर्थ शुक्लध्यानके द्वारा शरीरको नष्ट कर सर्वोत्कृष्ट सिद्ध हो गये ।। २७१-२७२ ॥ उसी समय निर्वाणकल्याणककी पूजाकी विधिको करनेवाले देव आये और पुण्यरूपी पण्य-खरीदने योग्य पदार्थको लेकर अपने-अपने स्थान पर चले गये ।। २७३ ।।
क्या यह शरद्ऋतुका पूर्ण चन्द्रमा है, अथवा समस्त पदार्थोंको जानने के लिए रक्खा हुआ दर्पण है, अथवा अमृतका शोभायमान विशालपिण्ड है अथवा पुण्य परमाणुओंका समूह है। इस प्रकार जिनके मुख-कमलको देखकर लोग शङ्का किया करते हैं वे चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र अज्ञानान्धकारको
१-मवीक्षणात् ल•।
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