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सप्तपञ्चाशत्तमं पर्व
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षटसहस्रप्रमाप्रोक्तमनःपर्ययवीक्षणः । शून्यत्रितयपञ्चोक्तवादिमुख्यसमाश्रितः ॥ ५७ ॥ शून्यत्रययुगाष्टोक्तपिण्डिताखिललक्षितः । खचतुष्टयपक्षकधारणाद्यार्यिकाचिंतः ॥ ५८ ॥ द्विलक्षोपासकोपेतो द्विगुणश्राविकाचिंतः। पूर्वोक्तदेवतिर्यको विहरन् धर्ममादिशन् ॥ ५९॥ सम्मेदगिरिमासाद्य निष्क्रियो मासमास्थितः । सहस्रमुनिभिः सार्द्ध प्रतिमायोगधारकः ॥ ६०॥ पौर्णमास्यां धनिष्ठायां दिनान्ते श्रावणे सताम् । असङ्ख्यातगुणश्रेण्या निर्जरां व्यदधन् मुहुः ॥ ६१ ॥ विध्वस्य विश्वकर्माणि ध्यानाभ्यां स्थानपञ्चके । पञ्चमी गतिमध्यास्य सिद्धः श्रेयान् सुनिवृतः ॥ ६२ ॥ २विफलानिमिषत्वा स्मो विनास्मादिति वा सुराः । कृतनिर्वाणकल्याणास्तदैव त्रिदिवं ययुः ॥ ६३ ॥
वसन्ततिलकावृत्तम् निर्धूय यस्य निजजन्मनि सत्समस्त
मान्ध्यं चराचरमशेषमवेक्षमाणम् । ज्ञानं प्रतीपविरहानिजरूपसंस्थं श्रेयान् जिनः स दिशतादशिवच्युतिं वः ॥ ६४ ॥
शार्दूलविक्रीडितम् सन्यं सार्वदयामयं तव वचः सर्वं सुहृद्भथो हितं
चारित्रं च विभोस्तदेतदुभयं ब्रूते विशुद्धिं पराम् । तस्माद्देव समाश्रयन्ति विबुधास्त्वामेव शक्रादयो
भक्त्येति स्तुतिगोचरो स विदुषां श्रेयान् स वः श्रेयसे ॥६५॥ राजाभूनलिनप्रभः प्रभुतमः प्रध्वस्तपापप्रभः
कल्पान्ते सकलामराधिपपतिः सङ्कल्पसौख्याकरः ।
एक लाख बीस हजार धारणा आदि आर्यिकाएँ उनकी पूजा करती थीं, दो लाख श्रावक और चार लाख श्राविकाएँ उनके साथ थीं, पहले कहे अनुसार असंख्यात देव-देवियाँ और संख्यात तिर्यञ्च सदा उनके साथ रहते थे। इस प्रकार विहार करते और धर्मका उपदेश देते हुए वे सम्मेदशिखर पर जा पहुँचे । वहाँ एक माह तक योग-निरोध कर एक हजार मुनियोंके साथ उन्होंने प्रतिमायोग धारण किया। श्रावणशुक्ला पौर्णमासीके दिन सायंकालके समय धनिष्ठा नक्षत्र में विद्यमान कोंकी असंख्यातगुणश्रेणी निर्जरा की और अ इ उ ऋ लु इन पाँच लघु अक्षरोंके उच्चारणमें जितना समय लगता है उतने समयमें अन्तिम दो शुक्लध्यानोंसे समस्त कर्मोको नष्ट कर पञ्चमी गतिमें स्थित हो वे भगवान् श्रेयांसनाथ मुक्त होते हुए सिद्ध हो गये ।। ५४-६२ ॥ इसके विना हमारा टिमकाररहितपना व्यर्थ है ऐसा विचार कर देवोंने उसी समय उनका निर्वाण-कल्याणक किया और उत्सव कर सब स्वर्ग चले गये ॥ ६३ ॥
जिनके ज्ञानने उत्पन्न होते ही समस्त अन्धकारको नष्ट कर सब चराचर विश्वको देख लिया था, और कोई प्रतिपक्षी न होनेसे जो अपने ही स्वरूपमें स्थित रहा था ऐसे श्री श्रेयांसनाथ जिनेन्द्र तुम सबका अकल्याण दूर करें ॥६४ ॥ 'हे प्रभो ! आपके वचन सत्य, सबका हित करनेवाले तथा दयामय हैं । इसी प्रकार आपका समस्त चारित्र सुहृत् जनोंके लिए हितकारी है। हे भगवन् ! आपकी ये दोनों वस्तुएँ आपकी परम विशुद्धिको प्रकट करती हैं। हे देव ! इसीलिए इन्द्र आदि देव भक्ति-पूर्वक आपका ही आश्रय लेते हैं। इस प्रकार विद्वान् लोग जिनकी स्तुति किया करते हैं ऐसे श्रेयांसनाथ भगवान् तुम सबके कल्याणके लिए हों। ६५ ॥ जो पहले पापकी प्रभाको नष्ट करनेवाले श्रेष्ठतम नलिनप्रभ राजा हुए, तदनन्तर अन्तिम कल्पमें संकल्प मात्रसे प्राप्त होनेवाले
१-माश्रित्य ल०। २ विफखम् अनिमिषत्वं पक्ष्मस्पन्दराहित्यं येषां तथाभूताः।
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