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एकोनषष्टितम पर्व सुखस्य तस्य को वेत्ति प्रमा मुक्तिमुखस्य चेत् । 'अनन्तरनितान्तत्वादानन्त्यादतिशुद्धितः ॥ २८ ॥ देवदेवस्तदैवासावासीद् विश्वसुरेश्वरैः । अभ्यचिंताहिरागन्त्री केवलं केवलात्मता ॥ २९ ॥ यशः प्रकाशयत्याशाः 'श्रीशः कुन्देन्दुनिर्मलम् । काशप्रसवनीकाशमाकाशं चाकरोददः ॥३०॥ त्रिंशच्छतसहस्राब्दराज्यकालावसानगः । भोगान् विभज्य भुजानो भूयः षडऋतुसम्भवान् ॥ ३१ ॥ हिमानीपटलच्छन्नदिग्भूभूरुहभूधरे । हेमन्ते हैमनी लक्ष्मी विलीनां वीक्ष्य तत्क्षणात् ॥ ३२॥ विरक्तः संसृतेः पूर्वनिजजन्मोपयोगवान् । रोगीव नितरां खिनो मानभङ्गविमर्शनात् ॥ ३३॥ सन्ज्ञानस्त्रिभिरप्येभिः किं कृत्यमवधौ स्थिते । वीर्येण च किमेतेन यत्कर्षमनाप्तवत् ॥ ३४ ॥ चारित्रस्य न गन्धोऽपि प्रत्याख्यानोदयो यतः । बन्धश्चतुविंधोऽप्यस्ति बहुमोहपरिग्रहः ॥ ३५॥ प्रमादाः सन्ति सर्वेऽपि निर्जराप्यल्पिकेव सा । अहो मोहस्य माहात्म्यं माद्याम्यहमिहैव हि ॥ ३६ ॥ साहसं ४पश्य भुजेऽहं भोगान्भोगानिवौरगान् । पुण्यस्य कर्मणः पाकादेतन्मे सम्प्रवर्तते ॥ ३० ॥ तस्य यावन्न याम्यन्तमनन्तं तत्सुखं कुतः। इतीवचित्तो विमलो विमलावगमोगमात् ॥ ३८ ॥ तदैवायातसारस्वतादिभिः कृतसंस्तवः । सुरैस्तृतीयकल्याणे विहिताभिषवोत्सवः ॥ ३९ ॥ देवदतां समारुह्य शिबिकाममरैर्वृतः। विभुः सहेतुकोद्याने प्राबाजी ग्रुपवासभाक् ॥ ४०॥ माघशुक्लचतुथ्योहाप्रान्ते षड्विशकलंके । सहस्रनरपैः सार्द्ध प्राप्य तुर्यावबोधनम् ॥ ११ ॥
बढ़कर उनकी और क्या स्तुति हो सकती थी ॥ २७ ॥ अत्यन्त विशुद्धताके कारण थोड़े ही दिन बाद जिन्हें मोक्षका अनन्त सुख प्राप्त होनेवाला है ऐसे विमलवाहन भगवान् के अनन्त सुखका वर्णन भला कौन कर सकता है ? ॥२८॥ जब उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ तब समस्त इन्द्रोंने उनके चरणकमलोंकी पूजा की थी और इसीलिए वे देवाधिदेव कहलाये थे॥२६॥ लक्ष्मीके अधिपति भगवान् विमलवाहनका कुन्दपुष्प अथवा चन्द्रमाके समान निर्मल यश दिशाओंको प्रकाशित कर रहा था
और आकाशको काशके पुष्पके समान बना रहा था ॥ ३०॥ इस प्रकार छह ऋतुओंमें उत्पन्न हुए भोगोंका उपभोग करते हुए भगवान्के तीस लाख वर्ष बीत गये ।। ३१॥
एक दिन उन्होंने, जिसमें समस्त दिशाएँ, भूमि, वृक्ष और पर्वत बर्फसे ढक रहे थे ऐसी हेमन्त ऋतुमें बर्फकी शोभाको तत्क्षणमें विलीन होता देखा ॥ ३२ ॥ जिससे उन्हें उसी समय संसारसे वैराग्य उत्पन्न हो गया, उसी समय उन्हें अपने पूर्व जन्मकी सब बातें याद आ गई और मान-भंगका विचार कर रोगीके समान अत्यन्त खेदखिन्न हुए ॥ ३३ ॥ वे सोचने लगे कि इन तीन सम्यग्ज्ञानोंसे क्या होने वाला है क्यों कि इन सभीकी सीमा है-इन सभीका विषय क्षेत्र परिमित है और इस वीर्यसे भी क्या लाभ है ? जो कि परमोत्कृष्ट अवस्था को प्राप्त नहीं है ।। ३४ ॥ चूंकि प्रत्याख्यानावरण कर्मका उदय है अतः मेरे चारित्रका लेश भी नहीं है और बहुत प्रकारका मोह तथा परिग्रह विद्यमान है अतः चारों प्रकार बन्ध भी विद्यमान है ॥ ३५ ॥ प्रमाद भी अभी मौजूद है और निर्जरा भी बहुत थोड़ी है। अहो ! मोहकी बड़ी महिमा है कि अब भी मैं इन्हीं संसारकी वस्तुओंमें मत्त हो रहा हूँ ॥३६॥ मेरा साहस तो देखो कि मैं अब तक सर्पके शरीर अथवा फणाके समान भयंकर इन भोगोंको भोग रहा हूँ। यह अब भोगोपभोग मुझे पुण्यकर्मके उदयसे प्राप्त हुए हैं ।। ३७ ॥ सो जब तक इस पुण्यकर्मका अन्त नहीं कर देता जब तक मुझे अनन्त सुख कैसे प्राप्त हो सकता है ? इस प्रकार निर्मल ज्ञान उत्पन्न होनेसे विमलवाहन भगवान्ने अपने हृदयमें विचार किया ॥ ३८ ॥ उसी समय आये हुए सारस्वत आदि लौकान्तिक देवोंने उनका स्तवन किया तथा अन्य देवोंने दीक्षाकल्याणकके समय होने वाले अभिषेकका उत्सव किया ॥३६॥ तदनन्तर देवोंके द्वारा घिरे हुए भगवान् देवदत्ता नामकी पालकी पर सवार होकर सहेतुक वनमें गये और वहाँ दो दिनके उपवासका नियम लेकर दीक्षित हो गये ॥४०॥ उन्होंने यह दीक्षा
३-मनाप्तवान् ग०,०।
१ अनन्तरं नितान्तत्वात् क०, प.। २ श्रियां ईट तस्य लक्ष्मीश्वरस्य। ४ परिभुखमून् ब०।५ सर्पशरीपणीव ।
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