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अष्टपञ्चाशत्तम पर्व
वासोरिन्द्रस्य पूज्योऽयं वसुपूज्पस्य वा सुतः । वासुपूज्यः सतां पूज्यः स ज्ञानेन पुनातु नः॥१॥ पुष्कराईन्द्रदिग्मेरुसीतापाग्वत्सकावती- २विषये ख्यातरत्नादिपुरे पनोत्तरः पतिः॥२॥ कीतिर्गुणमयी वाचि मूर्तिः पुण्यमयीक्षणे । वृत्तिधर्ममयी चिरो सर्वेषामस्य भूभुजः॥३॥ साम वाचि दया चिरो धाम देहे नयो मतौ। धन दाने जिने भक्तिः प्रतापस्तस्य शत्रुषु ॥४॥ पाति तस्मिन् भुवं भूपे न्यायमार्गानुवर्तिनि । वृद्धिमेव प्रजाः प्रापुमुंनी समितयो यथा ॥ ५॥ गुणास्तस्य धनं लक्ष्मीस्तदीयापि गुणप्रिया । तया सह ततो दीर्घ निर्द्वन्द्वं मुखमाप्नुवन् ॥ ६॥ स कदाचित् समासीन मनोहरगिरी जिनम् । युगन्धराड्यं स्तोत्रैरुपास्य खलु भक्तिमान् ॥ ७॥ श्रत्वा सप्रश्रयो धर्ममनुप्रेक्षानुचिन्तनात् । जातत्रिभेदनिर्वेगः५ पुनश्चेत्यप्यचिन्तयत् ॥ ८॥ थियो माया सुखं दुःखं 'विश्रसावधि जीवितम् । संयोगो विप्रयोगान्तः कायोऽयं सामयः खलः ॥९॥ -कात्र प्रीतिरहं जन्मपञ्चावर्तान्महाभयात् । निर्गच्छाम्यवलम्ब्यैतां काललब्धिमुपस्थिताम् ॥१०॥ ततो राज्यभर पुने धनमित्रे नियोज्य सः। महीशैर्बहुभिः सा मदीक्षिष्टात्मशुद्धये ॥ ११ ॥ अधीत्यैकादशाङ्गानि प्रदानाचाप्ससम्पदा । बद्ध्वा तीर्थकर नाम प्रान्ते संन्यस्य शुद्धधीः ॥१२॥
जो वासु अर्थात् इन्द्र के पूज्य हैं अथवा महाराज वसुपूज्यके पुत्र हैं और सज्जन लोग जिनकी पूजा करते हैं ऐसे वासुपूज्य भगवान् अपने ज्ञानसे हम सबको पवित्र करें॥१॥ पुष्करार्ध द्वीपके पूर्व मेरुकी ओर सीता नदीके दक्षिण तट पर वत्सकावती नामका एक देश है। उसके अतिशय प्रसिद्ध रनपुर नगरमें पद्मोत्तर नामका राजा राज्य करता था ॥२॥ उस राजाकी गुणमयी कीर्ति सबके वचनोंमें रहती थी, पुण्यमयी मूर्ति सबके नेत्रोंमें रहती थी, और धर्ममयी वृत्ति सबके चित्तमें रहती थी ॥३॥ उसके वचनोंमें शान्ति थी, चित्तमें दया थी, शरीरमें तेज था, बुद्धिमें नीति थी, दानमें धन था, जिनेन्द्र भगवान्में भक्ति थी और शत्रुओंमें प्रताप था अर्थात् अपने प्रतापसे शत्रुओंको नष्ट करता था ॥४॥ जिस प्रकार न्यायमार्गसे चलनेवाले मुनिमें समितियाँ बढ़ती रहती हैं उसी प्रकार न्यायमार्गसे चलनेवाले उस राजाके प्रथिवीका पालन करते समय प्रजा खूब बढ़ रही थी॥५॥ उसके गुण ही धन था तथा उसकी लक्ष्मी भी गुणोंसे प्रेम करनेवाली थी इसलिए वह उस लक्ष्मीके साथ बिना किसी प्रतिबन्धके विशाल सुख प्राप्त करता रहता था ॥ ६॥ किसी एक दिन मनोहर नामके पर्वत पर युगन्धर जिनराज विराजमान थे। पद्मोत्तर राजाने वहाँ जाकर भक्तिपूर्वक अनेक स्तोत्रोंसे उनकी उपासना की॥७॥ विनयपूर्वक धर्म सुना और अनुप्रेक्षाओंका चिन्तवन किया । अनुप्रेक्षाओंके चिन्तवनसे उसे संसार, शरीर और भोगोसे तीन प्रकारका वैराग्य उत्पन्न हो गया। वैराग्य होने पर वह इस प्रकार पुनः चिन्तवन करने लगा॥८॥ कि यह लक्ष्मी माया रूप है, सुख दुःखरूप है, जीवन मरण पर्यन्त है, संयोग-वियोग होने तक है और यह दुष्ट शरीर रोगोंसे सहित है ॥६॥ अतः इन सबमें क्या प्रेम करना है ? अब तो मैं उपस्थित हुई इस काललब्धिका अवलम्बन लेकर अत्यन्त भयानक इस संसार रूपी पश्च परावर्तनोंसे बाहर निकलता हूँ॥१०॥ ऐसा विचार कर उसने राज्यका भार धनमित्र नामक पुत्रके लिए सोपा और स्वयं आत्म-शुद्धिके लिए अनेक राजाओंके साथ ली॥ ११॥ निर्मल बुद्धिके धारक पद्मोत्तर मुनिने ग्यारह अंगोंका अध्ययन किया, दर्शनविशुद्धि
१ वासुना इन्द्रेण पूज्यः वासुपूज्यः, अथवा वसुपूज्यस्य अपत्यं वासुपूज्यः। २ विषयख्यात ख०।३ गुणस्तस्य ग०, ल०।४ तद्दायापि ल० (१)। ५ निर्वेदः ल०। ६ मरणावधि। ७ सामयः सरोगः ।
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