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महापुराणे उत्तरपुराणम् स रक्तो गुणमअर्याः प्रेक्षायामिव षट्पदः । चूतप्रसवमञ्जर्या माधुर्यरसरन्जितः ॥ ६४॥ रत्नाद्युपायनोपेतं मितार्थ चित्तहारिणम् । सुषेणं प्रतिसम्मान्य प्राहिणोन्मर्तकीप्सया ॥ ६५॥ दूतोऽपि सत्वरं गत्वा स सुषेणमहीपतिम् । दृष्ट्वा यथोचितं तस्मै दत्त्वोपायनमब्रवीत् ॥ ६६ ॥ युष्मद्गृहे महारत्नं नर्तकी किल विश्रुता । विन्ध्यशक्तिर्भवबन्धुस्तं द्रष्टुमभिलाषुकः ॥ ६७ ॥ तत्प्रयोजनमुद्दिश्य प्रहितोऽहं महीपते। त्वयापि सा प्रहेतव्या प्रत्यानीय समर्पये ॥ ६८॥ इत्यतस्तद्वचः श्रुत्वा सुतरां कोपवेपिना । याहि याहि किमश्रव्यैर्वचोभिर्दशालिभिः ॥ ६९ ॥ इति निर्भत्सितो भूयः सुषेणेन दुरुक्तिभिः । दूतः प्रत्येत्य तत्सव विन्ध्यशक्तिं २व्यजिज्ञपत् ॥ ७॥ सोऽपि कोपग्रहाविष्टस्तद्वचःश्रवणाद् भृशम् । अस्तु को दोष इत्यात्मगतमालोच्य मन्त्रिभिः ॥७१ ॥ शूरो लघुसमुत्थानः कूटयुद्धविशारदः । अवस्कन्देन सम्प्राप्य सारसांनामिकाग्रणीः ॥ ७२ ॥ विधाय सङ्गरे भङ्ग तत्कीतिमिव नर्तकीम् । उतामाहरद् गते पुण्ये कस्य किं कोऽत्र नाहरत् ॥ ७३ ॥ दन्तभङ्गो गजेन्द्रस्य दंष्ट्रभङ्गो गजद्विषः । मानभङ्गो महीभर्तुमहिमानमपडुते ॥ ७४ ॥ स तेन मानभङ्गेन स्वगृहागनमानसः । पृष्ठभङ्गेन नागो वा न प्रतस्थे पदात्पदम् ॥ ७५॥ स कदाचित्सनिर्वेदः४ सुव्रताख्यजिनाधिपात् । अनगारात्परिज्ञातधर्मानिर्मलचेतसा ॥ ७६ ॥ स कोऽपि पापपाको मे येन तेनाप्यहं जितः । इति सञ्चित्य पापारि निहन्तुं मतिमातनोत् ॥ ७७ ॥ तपस्तनूनपात्तापतनूकृततनुश्विरम् । सारिकोपः स संन्यस्य सनिदानः सुरोऽमवत् ॥ ७८ ॥
पुर नगरमें विन्ध्यशक्ति नामका राजा रहता था ॥ ६३ ॥ जिस प्रकार मधुरताके रससे अनुरक्त हुआ भ्रमर आम्रमञ्जरीके देखनेमें आसक्त होता है उसी प्रकार वह राजा गुणमञ्जरीके देखने में आसक्त था ।। ६४ ॥ उसने नृत्यकारिणीको प्राप्त करनेकी इच्छासे सुषेण राजाका सन्मान कर उसके पास रत्न आदिकी भेंट लेकर चित्तको हरण करनेवाला एक दूत भेजा ।। ६५ ।। उस दूतने भी शीघ्र जाकर सुषेण महाराजके दर्शन किये, यथायोग्य भेंट दी और निम्न प्रकार समाचार कहा।। ६६ ।। उसने कहा कि आपके घरमें जो अत्यन्त प्रसिद्ध नर्तकीरूपी महारत्न है, उसे आपका भाई विन्ध्यशक्ति देखना चाहता है॥६७॥ हे राजन् ! इसी प्रयोजनको लेकर मैं यहाँ भेजा गया हूँ। आप भी उस नृत्यकारिणीको भेज दीजिए । मैं उसे वापिस लाकर आपको सौंप दूंगा ।। ६८ ॥ दूतके ऐसे वचन सुनकर सुषेण क्रोधसे अत्यन्त काँपने लगा और कहने लगा कि जा, जा, नहीं सुनने योग्य तथा अहंकारसे भरे हुए इन वचनोंसे क्या लाभ है ? इस प्रकार सुषेण राजाने खोटे शब्दों द्वारा दूतकी बहुत भारी भर्त्सना की। दूतने वापिस आकर यह सब समाचार राजा विन्ध्यशक्तिसे कह दिए॥६९-७०।। इतके वचन सुननेसे वह भी बहुत भारी क्रोधरूपी ग्रहसे आविष्ट हो गया-अत्यन्त कुपित हो गया और कहने लगा कि रहने दो, क्या दोष है ? तदनन्तर मंत्रियोंके साथ उसने कुछ गुप्त विचार किया। ।। ७१॥ कूट युद्ध करनेमें चतुर, श्रेष्ठ योद्धाओंके आगे चलनेवाला और शूरवीर वह राजा अपनी सेना लेकर शीघ्र ही चला ।। ७२ ॥ विन्ध्यशक्तिने युद्धमें राजा सुषेणको पराजित किया और उसकी कीर्तिके समान नृत्यकारिणीको जबरदस्ती छीन लिया सो ठीक ही है क्योंकि पुण्यके चले जाने पर कौन किसकी क्या वस्तु नहीं हर लेता ? ॥ ७३ ॥ जिस प्रकार दाँतका टूट जाना हाथीकी महिमाको छिपा लेता है, और दाढ़का टूट जाना सिंहकी महिमाको तिरोहित कर देता है उसी प्रकार मान-भङ्ग राजाकी महिमाको छिपा देता है ।। ७४ ॥ उस मान-भङ्गसे राजा सुषेणका दिल टूट गया अतः जिस प्रकार पीठ टूट जानेसे सर्प एक पद भी नहीं चल पाता है उसी प्रकार वह भी अपने स्थानसे एक पद भी नहीं चल सका ॥७५॥ किसी एक दिन उसने विरक्त होकर धर्मके स्वरूपको जाननेवाले गृह-त्यागी सुव्रत जिनेन्द्रसे धर्मोपदेश सुना और निर्मल चित्तसे इस प्रकार विचार किया कि वह हमारे किसी पापका ही उदय था जिससे विन्ध्यशक्तिने मुझे हरा दिया। ऐसा विचार कर उसने पाप-रूपी शत्रुको नष्ट करनेकी इच्छा की ।। ७६-७७ ॥ और उन्हीं जिनेन्द्रसे दीक्षा ले
१ मितभाषिणं दूतम् । २ प्रजिज्ञपत् ल० । ३ ततोऽहरद् ल० । ४ सनिवेगः ख० । सनिवेदं ल. ।
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