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महापुराणे उत्तरपुराणम्
आस्तामन्यत्र तर्द्ध त्या मन्दमन्दप्रभे रवौ । मन्ये १ विकस्वरा पद्मा पद्मेष्वपि न जातुचित् ॥ ९३ ॥ २ पुराणभूपमार्गस्य सोऽभवत्पारिपन्थिकः । सिंहिकानन्दनो वोग्रः पूर्णमास्यमृतद्युतेः ॥ ९४ ॥ गलन्ति गर्भास्तन्नाना गर्भिणीनां भयोद्भवात् । घनाघनावलीनां वा क्रूरग्रहविकारतः ॥ ९५ ॥ अन्विष्य प्रतियोद्धारमलब्ध्वा क्रुद्धमानसः । स्वप्रतापानिधूमेन दूषितो वा मषीनिभः ॥ ९६ ॥ संतप्तसर्वमूर्धन्यः धर्मधर्मांशुदुस्सहः । स पाताभिमुखः किं स्युः स्थावरास्तादृशाः श्रियः ॥ ९७ ॥ अखण्डस्य त्रिखण्डस्याधिपत्यं समुद्वहन् । जन्मान्तरा गतात्युग्र विरोधाराध्यचोदितः ॥ ९८ ॥ द्विटष्टाचलयोर्वृद्धिं प्ररूढां सोढुमक्षमः । करदीकृतनिःशेषमहीपालकृषीबलः ॥ ९९ ॥ ब्रह्मवत्करदौ नैतौ दुर्मदेनापि दर्पितौ । ४ दुष्टमाशीविषं गेहे वर्द्धमानं सहेत कः ॥ १०० ॥ उच्छेद्यकोटिमारूढौ ममेमो येन केनचित् । सन्दूष्याहं हनिष्यामि निजप्रकृतिदूषितौ ॥ १०१ ॥ " इत्यपायं विचिन्त्यैकं दुर्वाक्यं कलहप्रियम् । प्राहिणोत्सोऽपि तौ प्राप्य सहसैवाह दुर्मुखः ॥ १०२ ॥ इत्यादिशति वां देवस्तारको 'मारको द्विषाम् । युष्मद्गृहे किलैकोऽस्ति ख्यातो गन्धगजो महान् ॥ १०३॥ आश्वसौ मे प्रहेतव्यो नो चेयुष्मच्छिरोद्वयम् । खण्डीकृत्याहरिष्यामि गर्ज मज्जयसेनया ॥ १०४ ॥ इत्यसभ्यमसोढव्यं तेनोक्तं कलहार्थिना । श्रुत्वाऽचलोऽचलो वोच्चैर्धीरोदात्तोऽब्रवीदिदम् ॥ १०५ ॥ गजो नाम कियान् शीघ्रमेत्वसावेव सेनया । तस्मै ददामहेऽन्यच्च येनासौ स्वास्थ्यमाप्नुयात् ॥ १०६ ॥
भरतक्षेत्रमें रहनेवाली देदीप्यमान लक्ष्मीको धारण कर रहा था ।। ६२ ।। अन्य जगहकी बात रहने दीजिए, मैं तो ऐसा मानता हूँ कि - उसके डर से सूर्यकी प्रभा भी मन्द पड़ गई थी इसलिए लक्ष्मी कमलों में भी कभी प्रसन्न नहीं दिखती थी ।। ६३ ।। जिस प्रकार उग्र राहु पूर्णिमाके चन्द्रमाका विरोधी होता है उसी प्रकार उग्र प्रकृति वाला तारक भी प्राचीन राजाओंके मार्गका विरोधी था ॥ ६४ ॥ जिस प्रकार किसी क्रूर ग्रहके विकार से मेघमालाके गर्भ गिर जाते हैं उसी प्रकार तारकका नाम लेते ही भय उत्पन्न होनेसे गर्भिणी स्त्रियोंके गर्भ गिर जाते थे ।। ६५ ।। स्याहीके समान श्याम वर्णवाला वह तारक सदा शत्रुओंको ढूँढ़ता रहता था और जब किसी शत्रुको नहीं पाता था तब ऐसा जान पड़ता था मानो अपने प्रतापरूपी अमिके धुएैसे ही काला पड़ गया हो ॥ ६६ ॥ जिसने समस्त क्षत्रियों को संतप्त कर रक्खा है और जो ग्रीष्म ऋतुके सूर्यके समान दुःखसे सहन करने योग्य है ऐसा वह तारक अन्तमें पतनके सम्मुख हुआ सो ठीक ही है क्योंकि ऐसे लोगोंकी लक्ष्मी क्या स्थिर रह सकती है ? ॥ ६७ ॥ जो अखण्ड तीन खण्डोंका स्वामित्व धारण करता था ऐसा तारक जन्मान्तर से आये हुए तीव्र विरोधसे प्रेरित होकर द्विपृष्ठनारायण और अचल बलभद्रकी वृद्धिको नहीं सह सका । वह सोचने लगा कि मैंने समस्त राजाओं और किसानोंको कर देनेवाला बना लिया है परन्तु ये दोनों भाई ब्राह्मणके समान कर नहीं देते। इतना ही नहीं, दुष्ट गर्वसे युक्त भी हैं। अपने घरमें बढ़ते हुए दुष्ट साँपको कौन सहन करेगा ? ॥ ६८-१०० ।। ये दोनों ही मेरे द्वारा नष्ट किये जाने योग्य शत्रुओंकी श्रेणीमें स्थित हैं तथा अपने स्वभावले दूषित भी हैं अतः जिस किसी तरह दोष लगाकर इन्हें अवश्य ही नष्ट करूँगा ।। १०१ ।। इस प्रकार अपायका विचार कर उसने दुर्वचन कहनेवाला एक कलह-प्रेमी दूत भेजा और वह दुष्ट दूत भी सहसा उन दोनों भाइयोंके पास जाकर इस प्रकार कहने लगा कि शत्रुओं को मारनेवाले तारक महाराजने आज्ञा दी है कि तुम्हारे घरमें जो एक बड़ा भारी प्रसिद्ध गन्धहस्ती है वह हमारे लिए शीघ्र ही भेजो अन्यथा तुम दोनोंके शिर खण्डित कर अपनी विजयी सेनाके द्वारा उस हाथीको जबरदस्ती मँगा लूँगा ।। १०२ - १०४ ॥ इस प्रकार उस कलहकारी दूतके द्वारा कहे हुए असभ्य तथा सहन करनेके अयोग्य वचन सुनकर पर्वतके समान अचल, उदार तथा धीरोदात्त प्रकृतिके धारक अचल बलभद्र इस तरह कहने लगे साथ शीघ्र आवें । हम उनके
।। १०५ ।। कि हाथी क्या चीज है ? तारक महाराज ही अपनी सेनाके
१ विकस्मरा ल० । २ पुराण भूतमार्गस्य ल० । ३ दर्पितम् घ० । ल० । ६ वारको क० ।
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४ दुष्टावाशी-ल० । ५ इत्युपायं
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