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अष्टपञ्चाशत्तमं पर्व
विमानेऽनुपमे नाम्ना कल्प प्राणतनामनि । विंशत्यब्ध्युपमायुः सन् स्वष्टद्धिकृतसम्मदः ॥ ७९ ॥ अत्रैव १भारते श्रीमान् महापुरमधिष्ठितः । नृपो वायुरथो नाम भुक्त्वा राज्यश्रियं चिरम् ॥ ८॥ श्रुत्वा सुव्रतनामाहत्पार्श्वे धर्म स तत्त्ववित् । सुतं घनरथं राज्ये स्थापयित्वाऽगमत्तपः ॥ ८१ ॥ अधीत्य सर्वशास्त्राणि विधाय परमं तपः। तत्रैवेन्द्रोऽभवत्कल्पे विमानेऽनुत्तराहये ।। ८२॥ ततोऽवतीर्य वर्षेऽस्मिन् पुरीद्वारावतीपतेः । ब्रह्माख्यस्याचलस्तोकः सुभद्रायामभूद्विभुः॥ ८३ ॥ तस्यैवासौ सुषेणाख्योऽप्युषायामात्मजोऽजनि । द्विपृष्ठाख्यस्तनुस्तस्य चापसप्ततिसम्मिता ॥ ८४ ॥ द्वासप्ततिसमालक्षाः परमायुनिरन्तरम् । राजभोगानभुक्ताच्चैरिक्ष्वाकूणां कुलाग्रणीः॥ ८५॥ कुन्देन्द्रनीलसङ्काशावभातां बलकेशवौ । सङ्गमेन प्रवाहो वा गङ्गायमुनयोरमू ॥ ८६ ॥ अविभक्तां महीमेतावभुक्तां पुण्यनायकौ । सरस्वती गुरूद्दिष्टां समानश्राविकाविव ॥ ८७ ॥ अविवेकस्तयोरासीदधीताशेषशास्त्रयोः । अपि श्रीकामिनीयोगे स एव किल शस्यते ॥ ८८ ॥ स्थिरावत्युनतौ शुक्लनीलो भातः स्म भूभृतौ । कैलासाञ्जनसम्झौ वा सङ्गत्तौ तौ मनोहरौ ॥ ८९ ॥ इतः स विन्ध्यशक्त्याख्यो घटीयन्त्रसमाश्चिरम् । भ्रान्त्वा संसारवाराशावणीयः पुण्यसाधनः ॥ १० ॥ इहैव श्रीधराख्यस्य भोगवर्द्धनपूस्पते । अभूदखिलविख्यातस्तनूजस्तारकाख्यया ॥ ११ ॥ बभार भास्वरां लक्ष्मी भरतार्डे निवासिनीम् । स्वचक्राकान्तिसन्त्रासदासीभूत (ख) भूचरः ॥ १२ ॥
ली। बहुत दिन तक तपरूपी अग्निके संतापसे उसका शरीर कृश हो गया था। अन्तमें शत्रुपर क्रोध रखता हुआ वह निदान बन्ध सहित संन्यास धारण कर प्राणत स्वर्गके अनुपम नामक विमानमें बीस सागरकी आयुवाला तथा आठ ऋद्धियोंसे हर्षित देव हुंआ ।। ७८-७६ ।।
अथानन्तर इसी भरतक्षेत्रके महापुर नगरमें श्रीमान् वायुरथ नामका राजा रहता था। चिरकाल तक राज्यलक्ष्मीका उपभोग कर उसने सुव्रत नामक जिनेन्द्र के पास धर्मका उपदेश सुना, तत्त्वज्ञानी वह पहलेसे ही था अतः विरक्त होकर घनरथ नामक पुत्रको राज्य देकर तपके लिए चला गया ।।८०-८१॥ समस्त शास्त्रोंका अध्ययन कर तथा उत्कृष्ट तप कर वह उसी प्राणत स्वर्गके अनुत्तर नामक विमानमें इन्द्र हुआ॥२॥ वहाँ से चय कर इसी भरतक्षेत्रकी द्वारावती नगरीके राजा ब्रह्मके उनकी रानी सुभद्राके अचलस्तोक नामका पुत्र हुआ ॥८३॥ तथा सुषेणका जीव भी वहाँसे चय कर उसी ब्रह्म राजाकी दूसरी रानी उषाके द्विपृष्ठ नामका पुत्र हुआ। उस द्विपृष्ठका शरीर सत्तर धनुष ऊँचाथा और आयु बहत्तर लाख वर्षकी थी। इस प्रकार इक्ष्वाकु वंशका अग्रेसर वह द्विपृष्ठ, राजाओंके उत्कृष्ट भोगोंका उपभोग करता था॥८४-८५॥ कुन्द पुष्प तथा इन्द्रनीलमणिके समान कान्तिवाले वे बलभद्र और नारायण जब परस्परमें मिलते थे तब गङ्गा और यमुनाके प्रवाहके समान जान पड़ते थे॥८६॥ जिस प्रकार समान दो श्रावक गुरुके द्वारा दी हुई सरस्वतीका बिना विभाग किये ही उपभोग करते हैं उसी प्रकार पुण्यके स्वामी वे दोनों भाई बिना विभाग किये ही पृथिवीका उपभोग करते थे॥८७॥ समस्त शास्त्रोंका अध्ययन करनेवाले उन दोनों भाइयोंमें अभेद था-किसी प्रकारका भेदभाव नहीं था सो ठीक ही है क्योंकि उसी अभेदकी प्रशंसा होती है जो कि लक्ष्मी और स्त्रीका संयोग होनेपर भी बना रहता है ॥ ८८ ॥ वे दोनों स्थिर थे, बहुत ही ऊँचे थे, तथा सफेद और नील रङ्गके थे इसलिए ऐसे अच्छे जान पड़ते थे मानो कैलास और अञ्जनगिरि ही एक जगह आ मिले हों॥८६॥
इधर राजा विन्ध्यशक्ति, घटी यन्त्रके समान चिरकाल तक संसार-सागरमें भ्रमण करता रहा । अन्तमें जब थोड़ेसे पुण्यके साधन प्राप्त हुए तब इसी भरतक्षेत्रके भोगवर्धन नगरके राजा श्रीधरके सर्व प्रसिद्ध तारक नामका पुत्र हुआ ॥६०-६१॥ अपने चक्रके आक्रमण सम्बन्धी भयसे जिसने समस्त विद्याधर तथा भूमि-गोचरियोंको अपना दास बना लिया है ऐसा वह तारक आधे
१ भरते ल० । २ पुरीद्वारवतीपतेः क०, घ० । पुरे ख०, ग० । ३ भूपतेः ख० ग० ।
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