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सप्तपश्चाशत्तमं पर्व
स बालवत्सया धेन्वा ऋधा प्रतिहतोऽपतत् । दौष्ट्याग्निर्वासितो देशान् भाम्यंस्तत्रागतो विधीः ॥८॥ विशाखनन्दी तं दृष्ट्रा वेश्यासौधतले स्थितः । व्यहसद्विक्रमस्तेऽद्य व यातः स इति ऋधा ॥ ८१॥ सशल्यः सोऽपि तच्छ्रुत्वा सनिदानोऽसुसञ्जये। महाशुक्रेऽभवद्देवो यत्रासीदनुजः पितुः ॥ ८२ ॥ १षोडशाब्ध्यायुषा दिव्यभोगान् देव्यप्सरांगणैः। ईप्सिताननुभूयासौ ततः प्रच्युत्य भूतले ॥ ८३ ॥ द्वीपेऽस्मिन् भारते क्षेत्रे सुरम्यविषये पुरे । प्रजापतिर्महाराजः पोदनाख्येऽभवत्पतिः ॥ ८४ ॥ प्राणप्रिया महादेवी तस्याजनि मृगावती। तस्यां सुस्वमवीक्षान्ते त्रिपृष्ठाख्यः सुतोऽभवत् ॥ ८५॥ पितृव्योऽपि च्युतस्तस्मात्तोकोऽभूत्तन्महीपतेः । जयावत्यां ४पुरे चैत्य विक्रमी विजयाह्वयः ॥ ८६ ॥ भ्रमन् विशाखनन्दी च चिरं संसारचक्रके। विजयाोत्तरश्रेण्यामलकाख्यपुरेशिनः ॥ ८७ ॥ मयरग्रीवसंज्ञस्य स्वपुण्यपरिपाकतः । हयग्रीवाह्वयः सूनुरजायत जितारिराट् ॥ ८८॥ अशीतिचापदेहैः तावादिमौ रामकेशवौ । पञ्चशून्ययुगाष्टाब्दनिर्भङ्गपरमायुषौ ॥ ८९ ॥ शहेन्द्रनीलसङ्काशौ हत्वाऽश्वग्रीवमुदतम् । त्रिखण्डमण्डितायास्ताविहाभूतां पती क्षितेः ॥ ९० ॥ द्विगुणाष्टसहस्राणां मुकुटाङ्कमहीभुजाम् । खगव्यन्तरदेवानामाधिपत्यं समीयतुः ॥ ११ ॥ त्रिपृष्ठस्य धनुःशङ्खचक्रदण्डासिशक्तयः । गदा च सप्तरत्नानि रक्षितान्यभवत्सुरैः ॥ १२ ॥ रामस्यापि गदा रत्नमाला समुशलं हलम् । श्रद्धानज्ञानचारित्रतपासीवाभवञ्छूिये ॥ ९३ ॥ देव्यः स्वयम्प्रभामुख्या ६मुकुटेशनमा बभुः। केशवस्य तदर्खास्ता रामस्यापि मनःप्रियाः ॥ ९४ ॥
विहार करता हुआ एक दिन मथुरा नगरीमें प्रविष्ट हुआ ॥ ७६॥ वहाँ एक छोटे बछड़ेवाली गायने क्रोधसे धक्का दिया जिससे वह गिर पड़ा। दुष्टताके कारण राज्यसे बाहर निकाला हुआ मूर्ख विशाखनन्दी अनेक देशोंमें घूमता हुआ उसी मथुरानगरीमें आकर रहने लगा था। वह उस सयय एक वेश्याके मकानकी छतपर बैठा था। वहाँसे उसने विश्वनन्दीको गिरा हुआ देखकर क्रोधसे उसकी हँसी की कि तुम्हारा वह पराक्रम आज कहाँ गया ? ||८०-८१ ॥ विश्वनन्दीको कुछ शल्य थी अतः उसने विशाखनम्दीकी हँसी सुनकर निदान किया। तथा प्राणक्षय होनेपर महाशुक्र स्वर्गमें जहाँ कि पिताका छोटा भाई उत्पन्न हुआ था, देव हुआ॥२॥ वहाँ सोलह सागर प्रमाण उसकी आयु थी। समस्त आयु भर देवियों और अप्सराओंके समूहके साथ मनचाहे भोग भोगकर वहाँसे च्यूत हुआ और इस पृथिवी तल पर जम्बूद्वीप सम्बन्धी भरत क्षेत्रके सुरम्य देशमें पोदनपुर नगरके राजा प्रजापतिकी प्राणप्रिया मृगावती नामकी महादेवीके शुभ स्वप्न देखनके बाद त्रिपृष्ठ नामका पुत्र हुआ ॥८३-८५ ।। काकाका जीव भी वहाँ से-महाशुक्र स्वर्ग से च्युत होकर इसी नगरीके राजाकी दूसरी पत्नी जयावतीके विजय नामका पुत्र हुआ।॥८६॥ और विशाखनन्दी चिरकाल तक संसार-चक्रमें भ्रमण करता हुआ विजयाध पर्वतकी उत्तर श्रेणीकी अलका नगरीके स्वामी मयूरग्रीव राजाके अपने पुण्योदयसे शत्रु राजाओंको जीतनेवाला अश्वग्रीव नामका पुत्र हुआ ॥ ८७-८८ ।। इधर विजय और त्रिपृष्ठ दोनों ही प्रथम बलभद्र तथा नारायण थे, उनका शरीर अस्सी धनुष ऊँचा था और चौरासी लाख वर्षकी उनकी आयु थी॥८६॥ विजयका शरीर शंखके समान स.फेद था और त्रिपृष्ठका शरीर इन्द्रनीलमणिके समान नील था। वे दोनों उद्दण्ड अश्वग्रीवको मारकर तीन खण्डोंसे शोभित पृथिवीके अधिपति हुए थे ।।६०॥ वे दोनों ही सोलह हजार मुकुट-बद्ध राजाओं, विद्याधरों एवं व्यन्तर देवोंके आधिपत्यको प्राप्त हुए थे ।। ६१॥ त्रिपृष्ठके धनुष, शंख, चक्र, दण्ड, असि, शक्ति और गदा ये सात रत्न थे जो कि देवोंसे सुरक्षित थे ॥ १२ ॥ बलभद्रके भी गदा, रत्नमाला, मुसल और हल, ये चार रत्न थे जो कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और तपके समान लक्ष्मीको बढ़ानेवाले थे॥६३॥ त्रिपृष्ठकी स्वयंप्रभाको आदि लेकर सोलह हजार स्त्रियाँ थीं और बलभद्रके
१ एष पाठः क०-ख० ग०-५०-प्रतिसंमतः, षोडशाब्धिसमायुर्दिव्यभोगानप्सरोगणैः ल०। २ वर्षे ल० । ३ पुत्रः । 'पुत्रः सूनुरपत्यं च तुकलोको चात्मजः सुतः।' इति कोशः। ४ परैर्वेत्य ल० ।५ समुसलं ग० । मुकुटबद्धराजप्रमाणाः षोडशसहस्रप्रमिता इति यावत् ।
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