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महापुराणे उत्तरपुराणम् स संरम्य चिरं ताभिर्बहारम्भपरिग्रहः। सप्तमी पृथिवीं प्राप केशवश्चाश्वकन्धरः ॥ ९५ ॥ सीरपाणिश्च तदुःखासदैवादाय सयमम् । सुवर्णकुम्भयोगीन्द्रादभूदगृहकेवली ॥ ९६ ॥
शार्दूलविक्रीडितम् कृत्वा राज्यममू सहैव सुचिरं भुक्त्वा सुखं तादर्श
पृथ्वीमूलमगात्किलाखिलमहादुःखालयं केशवः । रामो धाम परं सुखस्य जगतां मूर्धानमध्यास्त धिक् दुष्टं कः सुखभाग्विलोमगविधिं यावन्न हन्यादमुम् ॥ ९ ॥
उपजातिच्छन्दः प्रागविश्वनन्दीति विशामधीशस्ततो महाशुक्रमधिष्ठितोऽमरः । पुनखिपृष्टो भरतार्द्धचक्री चिताधकः सप्तमभूमिमाश्रयत् ॥ १८ ॥
वंशस्थवृत्तम् विशाखभूतिधरणीपतिर्यमी मरुन्महाशुक्रगतस्ततश्च्युतः । हलायुधोऽसौ विजयायः क्षयं भवं स नीत्वा परमात्मतामितः ॥ ९९ ॥ विशाखनन्दी विहतप्रतापो व्यसुः परिश्रम्य भवे चिरं ततः।
खगाधिनाथो हयकन्धराहयो रिपुखिपृष्ठस्य ययावधोगतिम् ॥ १०॥ इत्या भगवद्गुणभद्राचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रहे श्रेयस्तीर्थकरत्रिपृष्ठ
विजयाश्वग्रीवपुराणं परिसमाप्तं सप्तपञ्चाशत्तम पर्व ॥ ५७ ॥
चित्तको प्रिय लगनेवाली आठ हजार स्त्रियाँ थीं ॥६४॥ बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रहको धारण करनेवाला त्रिपृष्ठ नारायण उन स्त्रियोंके साथ चिरकाल तक रमण कर सातवीं पृथिवीको प्राप्त हुआसप्तम नरक गया। इसी प्रकार अश्वग्रीव प्रतिनारायण भी सप्तम नरक गया ॥६५॥ बलभद्रने भाईके दःखसे दुःखी होकर उसी समय सुवर्णकुम्भ नामक योगिराजके पास संयम धारण कर लिया और क्रम-क्रमसे अनगारकेवली हुआ ॥६६॥ देखो, त्रिपृष्ठ और विजयने साथ ही साथ राज्य किया,
और चिरकाल तक अनुपम सुख भोगे परन्तु नारायण-त्रिपृष्ठ समस्त दुःखोंके महान् गृह स्वरूप सातवें नरकमें पहुँचा और बलभद्र सुखके स्थानभूत त्रिलोकके अग्रभाग पर जाकर अधिष्ठित हुआ इसलिए प्रतिकूल रहनेवाले इस दुष्ट कर्मको धिक्कार हो। जब तक इस कर्मको नष्ट नहीं कर दिया जावे तब तक इस संसारमें सुखका भागी कौन हो सकता है ? ॥१७॥ त्रिपृष्ठ, पहले तो विश्वनन्दी नामका राजा हुआ फिर महाशुक्र स्वर्गमें देव हुआ, फिर त्रिपृष्ठ नामका अर्धचक्री-नारायण हुआ और फिर पापोंका संचय कर सातवें नरक गया।। ९८ ॥ बलभद्र, पहले विशाखभूति नामका राजा था फिर मुनि होकर महाशुक्र स्वर्गमें देव हुआ, वहाँसे चयकर विजय नामका बलभद्र हुआ और फिर संसारको नष्ट कर परमात्म-अवस्थाको प्राप्त हुआ।हह। प्रतिनारायण पहले विशाखनन्दी इंश्रा.फिर प्रताप रहित हो मरकर चिरकाल तक संसारमें भ्रमण करता रहा, फिर अश्वग्रीव नामका विद्याधर हआ जो कि त्रिपृष्ठ नारायणका शत्रु होकर अधोगति-नरक गतिको प्राप्त हवा ॥१०॥ इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध, भगवद्गुणभद्राचार्य प्रणीत त्रिषष्टि लक्षण महापुराण
संग्रहमें श्रेयांसनाथ तीर्थंकर त्रिपृष्ठनारायण, विजय बलभद्र और अश्वग्रीव प्रतिनारायणके पुराणका वर्णन करनेवाला सत्तावनवाँ पर्व समाप्त हुआ
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१ अत्र छन्दोभङ्गः, 'विहतप्रतापकः' इति पाठो भवेत् ।
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