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अष्टपश्चाशत्तम पर्व
६ प्रयः साप्ताहिका मेघा अशीतिः कणशीकराः । षष्टिरातपमेघानामेघवृष्टिः समा मता ॥ २७ ॥ अगुर्गुणा गुणीभावमन्येष्वस्मिस्तु मुख्यताम् । आश्रयः कस्य वैशिष्ट्यं विशिष्टो न प्रकल्पते ॥ २८॥ गुणी गुणमयस्तस्य नाशस्तनाश इष्यते । इति बुद्ध्वा सुधीः सर्वान् गुणान् सम्यगपालयत् ॥ २९ ॥ अष्टादशसमाः लक्षाः कौमारे प्राप्य संसृतेः । निविद्यात्मगतं धीमान् याथात्म्यं समचिन्तयत् ॥ ३०॥ विर्षीविषयसंसक्तो बन्नमात्मानमात्मना । बन्धैश्चतुर्विधैर्दुःखं भुजानश्च चतुर्विधम् ॥ ३१ ॥ अनादौ जन्मकान्तारे भान्त्वा कालादिलब्धितः। सन्मार्ग प्राप्तवाँस्तेन प्रगुणं यामि सद्गतिम् ॥ ३२ ॥ अस्तु कायः शुचिः स्थास्नुः प्रेक्षणीयो निरामयः । आयुश्चिरमनाबाधं सुखं सन्ततसाधनम् ॥ ३३ ॥ किन्तु भ्रवो वियोगोऽत्र रागात्मकमिदं सुखम् । रागी बनाति कर्माणि बन्धः संसारकारणम् ॥ ३४ ॥ चतुर्गतिमयः सोऽपि ताश्च दुःखसुखावहाः। ततः किममुनेत्येतत्त्याज्यमेव विचक्षणैः ॥ ३५॥ इति चिन्तयतस्तस्य स्तवो लौकान्तिकैः कृतः । सुरा निष्क्रमणवानभूषणाद्युत्सवं व्यधुः ॥ ३६ ।। शिविकां देवसंरूढामारुह्य पृथिवीपतिः । वने मनोहरोद्याने चतुर्थोपोषितं वहन् ॥ ३७॥ विशाखः चतुर्दश्यां सापाहे कृष्णफाल्गुने । सामायिकं समादाय तुर्यज्ञानोऽप्यभूदनु ॥ ३८ ॥ सह तेन महीपालाः षट्सप्ततिमिताहिताः । प्रव्रज्यां प्रत्यपद्यन्त परमार्थविदो मुदा ॥ ३९ ॥ द्वितीये दिवसेऽविक्षन् महानगरमन्धसे । सुन्दराख्यो नृपस्तस्मै सुवर्णाभोऽदिताशनम् ॥ ४०॥
आश्चर्यपञ्च चापि तेन छानस्थ्यवत्सरे । गते श्रीवासुपूज्येशः स्वदीक्षावनमागतः ॥४१॥ इस राजाकी बुद्धिको पाकर श्रेष्ठ फल देनेवाले हो गये थे ॥ २६ ॥ सात दिन तक मेघोंका बरसना त्रय कहलाता है, अस्सी दिन तक बरसना कणशीकर कहलाता है और बीच-बीचमें आतप-धूप प्रकट करनेवाले मेघोंका साठ दिन तक वरसना समावृष्टि कहलाती है ॥ २७ ॥ गुण, अन्य हरिहरादिकमें जाकर अप्रधान हो गये थे परन्तु इन वासुपूज्य भगवान्में वही गुण मुख्यताको प्राप्त हुए थे सो ठीक ही है क्योंकि विशिष्ट आश्रय किसकी विशेषताको नहीं करते ? ॥ २८ ॥ चूँकि सब पदार्थ गुणमय हैं-गुणोंसे तन्मय हैं अतः गुणका नाश होनेसे गुणी पदार्थका भी नाश हो जावेगा यह विचार कर ही बुद्धिमान् वासुपूज्य भगवान् समस्त गुणोंका अच्छी तरह पालन करते थे ॥२६॥ जब कुमारकालके अठारह लाख वर्ष बीत गये तब संसारसे विरक्त होकर बुद्धिमान भगवान् अपने मनमें पदार्थके यथार्थ स्वरूपका इस प्रकार विचार करने लगे ॥३०॥ यह निर्बुद्धि प्राणी विषयोंमें
आसक्त होकर अपनी आत्माको अपने ही द्वारा बाँध लेता है तथा चार प्रकारके बन्धसे चार प्रकारका दुःख भोगता हुआ इस अनादि संसार-वनमें भ्रमण कर रहा है। अब मैं कालादि लब्धियोंसे उत्तम गुणको प्रकट करनेवाले सन्मार्गको प्राप्त हुआ हूँ अतः मुझे मोक्ष रूप सद्गति ही प्राप्त करना चाहिए ॥ ३१-३२॥ शरीर भला ही पवित्र हो, स्थायी हो, दर्शनीय-सुन्दर हो, नीरोग हो, आयु चिरकाल तक बाधासे रहित हो, और सुखके साधन निरन्तर मिलते रहें परन्तु यह निश्चित है कि इन सबका वियोग अवश्यंभावी है, यह इन्द्रियजन्य सुख रागरूप है, रागी जीव कर्मोको बाँधता है, बन्ध संसारका कारण है, संसार चतुर्गति रूप है और चारों गतियाँ दुःख तथा सुखको देनेवाली हैं अतः मुझे इस संसारसे क्या प्रयोजन है ? यह तो बुद्धिमानोंके द्वारा छोड़ने योग्य ही है ॥३३-३५॥ इधर भगवान ऐसा चिन्तवन कर रहे थे उधर लौकान्तिक देवोंने आकर उनकी स्तुति करमा प्रारम्भ कर दी। देवोंने दीक्षा-कल्याणकके समय होनेवाला अभिषेक किया, आभूषण पहिनाये तथा अनेक उत्सव किये ॥ ३६॥ महाराज वासुपूज्य देवोंके द्वारा उठाई गई पालकी पर सवार होकर मनोहरोद्यान नामक वनमें गये और वहाँ दो दिनके उपवासका नियम लेकर फाल्गुनकृष्ण चतुर्दशीके दिन सायंकालके समय विशाखा नक्षत्र में सामायिक नामका चारित्र ग्रहण कर साथ ही साथ मनःपर्ययज्ञानके धारक भी हो गये ।।३७-३८ ।। उनके साथ परमार्थको जाननेवाले छह सौ छिहत्तर राजाओंने भी बड़े हर्षसे दीक्षा प्राप्त की थी॥३६॥ दूसरे दिन उन्होंने आहारके लिए महानगरमें प्रवेश किया। वहाँ सुवर्णके समान कान्तिवाले सुन्दर नामके राजाने उन्हें आहार दिया ॥४०॥ और पञ्चाश्चर्य प्राप्त
१ षष्टिगतपमेघानां मेघवृष्टिः क०,१०-मेषा वृष्टिः ल०।२ संशक्तो ल०१३ सन्ततिसाधनम् ग.,ख
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