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सप्तपञ्चाशत्तमं पर्व
सद्यश्चतुविधा देवाः कृत्वा तेजोमयं जगत् । स्वाङ्गाभरणभाभारैरापतन्ति स्म सर्वतः ॥ २८ ॥ नेदुर्दुन्दुभयो हृद्या: पेतुः कुसुमवृष्टयः । नेदुरामरनर्तक्यो जगुः स्वादुः १ युगायकाः ॥ २९ ॥ लोकोऽयं देवलोको वा ततश्चात्यद्भुतोदयः । अपूर्वः कोऽप्यभूद्वेति तदासन् सदां गिरः ॥ ३० ॥ 3 पितरौ तस्य सौधर्मः स्वयं सभूषणादिभिः । शची देवीं च सन्तोष्य माययाऽऽदाय बालकम् ॥ ३१॥ ऐरावतगजस्कन्धमारोप्यामरसेनया । सहलीलः स सम्प्राप्य महामेरुं महौजसम् ॥ ३२ ॥ पञ्चमावारपारात्तक्षीरवारिघटोत्करैः । अभिषिच्य विभूष्येशं श्रेयानित्यवदन्मुदा ॥ ३३ ॥ ततः पुरं समानीय मातुरके निधाय तम् । सुराधीशः सुरैः सार्द्धं ४ प्रमुचार" सुरालये ॥ ३४ ॥ गुणैः सार्द्धमवर्द्धन्त तदास्यावयवाः शुभाः । क्रमात्कान्ति प्रपुष्यन्तो बालचन्द्रस्य वांशुभिः ॥ ३५ ॥ स खत्रयर्तु पक्षषवत्सरशताब्धिभिः । ऊनसागरकोट्यन्ते पल्यार्द्धे धर्मसन्ततौ ॥ ३६ ॥ व्युच्छिन्नायां तदभ्यन्तरायुः श्रेयःसमुद्भवः । पञ्चशून्ययुगाष्टाब्दजीवितः कनकप्रभः ॥ ३७ ॥ चापाशीतिसमुत्सेधो बलोजस्तेजसां निधिः । एकविंशतिलक्षाब्दकौमार सुखसागरः ॥ ३८ ॥ प्राप्य राज्यं सुरैः पूज्यं सर्वलोकनमस्कृतः । तर्पर्यैश्चन्द्रवत्सर्वान् दर्पितान् भानुवत्तपन् ॥ ३९ ॥ तेजोमहामणिर्वाद्धिर्गाम्भीर्य मलयोद्भवः । शैत्यं धर्म इव श्रेयः सुखं स्वस्याकरोच्चिरम् ॥ ४० ॥ प्राग्जन्मसुकृतायेन" कृतायां सर्वसम्पदि । बुद्धिपौरुषयोर्व्याप्तिस्तस्याभूद्धर्मकामयोः ॥ ४१ ॥
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बता सकता है ? ।। २७ ।। शीघ्र ही चारों निकायके देव अपने शरीर तथा आभरणोंकी प्रभाके समूह से समस्त संसारको तेजोमय करते हुए चारों ओरसे आ गये ॥ २८ ॥ मनोहर दुन्दुभियाँ बजने लगीं, पुष्प वर्षाएँ होने लगीं, देव-नर्तकियाँ नृत्य करने लगीं और स्वर्गके गवैया मधुर गान गाने लगे || २ || 'यह लोक देव लोक है अथवा उससे भी अधिक वैभवको धारण करनेवाला कोई दूसरा ही लोक है' इस प्रकार देवोंके शब्द निकल रहे थे ॥ ३० ॥ सौधर्मेन्द्रने स्वयं उत्तम आभूषणादिसे भगवान् के माता-पिताको संतुष्ट किया और इन्द्राणीने मायासे माताको संतुष्ट कर जिन - बालकको उठा लिया ।। ३१ ।। सौधर्मेन्द्र जिन- बालकको ऐरावत हाथीके कन्धे पर विराजमान कर देवोंकी सेना के साथ लीला-पूर्वक महा-तेजस्वी महामेरु पर्वत पर पहुँचा ॥ ३२ ॥ वहाँ उसने पचम क्षीरसमुद्र से लाये हुए क्षीर रूप जलके कलशोंके समूहसे भगवान्का अभिषेक किया, आभूषण पहनाये और बड़े हर्ष के साथ उनका श्रेयांस यह नाम रक्खा ॥ ३३ ॥ इन्द्र मेरु पर्वतसे लौटकर
में आया और जिन-बालकको माताकी गोदमें रख, देवोंके साथ उत्सव मनाता हुआ स्वर्ग चला गया ॥ ३४ ॥ जिस प्रकार किरणोंके द्वारा क्रम क्रमसे कान्तिको पुष्ट करनेवाले बाल - चन्द्रमाके अवयव बढ़ते रहते हैं उसी प्रकार गुणोंके साथ-साथ उस समय भगवान् के शरीरावयव बढ़ते रहते थे ॥ ३५ ॥ शीतलनाथ भगवान् के मोक्ष जानेके बाद जब सौ सागर और छयासठ लाख छब्बीस हजार वर्ष कम एक सागर प्रमाण अन्तराल बीत गया तथा आधे पल्य तक धर्मकी परम्परा टूटी रही तब भगवान् श्रेयांसनाथका जन्म हुआ था । उनकी आयु भी इसी अन्तरालमें शामिल थी। उनकी कुल चौरासी लाख वर्षकी थी। शरीर सुवर्णके समान कान्तिवाला था, ऊँचाई अस्सी धनुष की थी, तथा स्वयं बल, ओज और तेजके भंडार थे। जब उनकी कुमारावस्थाके इक्कीस लाख वर्ष बीत चुके तब सुख के सागर स्वरूप भगवान् ने देवोंके द्वारा पूजनीय राज्य प्राप्त किया । उस समय सब लोग उन्हें नमस्कार करते थे, वे चन्द्रमाके समान सबको संतृप्त करते थे और अहंकारी मनुष्योंको सूर्यके समान संतापित करते थे || ३६-३६ ।। उन भगवान्ने महामणिके समान अपने आपको तेजस्वी बनाया था, समुद्र के समान गम्भीर किया था, चन्द्रमाके समान शीतल बनाया था और धर्मके समान चिरकाल तक कल्याणकारी श्रुत-स्वरूप बनाया था ॥ ४० ॥ पूर्व जन्ममें अच्छी तरह किये हुए पुण्यकर्म से उन्हें सर्व प्रकारकी सम्पदाएँ तो स्वयं प्राप्त हो गई थीं अतः उनकी बुद्धि और पौरुषकी व्याप्ति १ स्वर्गगायकाः । द्युनायकाः ख० । द्युगायनाः ल० | २ दिवि सीदन्तीति सदः तेषाम् देवानाम् । ३ माता च पिता चेति पितरौ मातापितरौ, एकशेषः । ४ प्रसन्नो भूत्वा । ५ आर जगाम । ६ कौमारे सु-ल० । पूर्वजन्मसुविहितपुण्यकर्मणा ।
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