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महापुराणे उत्तरपुराणम् पुष्पोत्तरविमानेऽसौ द्वाविंशस्यब्धिजीवितः । हस्तबयप्रमाणाङ्गः प्रोक्तलेश्यादिभिर्युतः ॥१४॥ देवीभिदिव्यभावाभिः कमनीयाभिरन्वहम् । भवसाराणि सौख्यानि तत्र प्रीत्यान्वभूचिरम् ॥ १५॥ कल्पातीता विरागास्ते परे चाल्पसुखास्ततः। संसारसौख्यपर्यन्तसन्तोषात्समतीयिवान् ॥१६॥ अनुभूय सुखं तस्मिन् तस्मिझनागमिष्यति । द्वीपेऽस्मिन् भारते सिंहपुराधीशो नरेश्वरः॥ १७॥ इक्ष्वाकुवंशविख्यातो विष्णुनामास्य वल्लभा। नन्दा षण्माससम्प्राप्तवसुधारादिपूजना ॥१८॥ ज्येष्ठे मास्यसिते षष्ठ्यां श्रवणे रात्रिनिर्गमे । स्ववक्त्रावेशिनागेन्द्रास्वमानैक्षिष्ट षोडश ॥ १९॥ तत्फलान्यवबुध्यासौ पत्युः सम्प्राप्य सम्मदम् । तदैवायातदेवेन्द्रविहितोरुमहोत्सवा ॥ २०॥ नवमासान् यथोक्तेन नीत्वा सन्तोष्य सुप्रजाः। फाल्गुने मासि कृष्णैकादश्यां त्रिज्ञानधारिणम् ॥२१॥ विष्णुयोगे महाभागमसूताच्युतनायकम् । मेघावलीव सदृष्टिविशेष विश्वतुष्टये ॥ २२ ॥ तदुद्भवे प्रसन्नानि मनांसि सकलाङ्गिनाम् । जलस्थलानि वा' सद्यः सर्वत्र शरदागमे ॥ २३ ॥ अथिनो धनसन्तृप्या धनिनो दीनतर्पणैः । ते च ते चेष्टसम्भोगात्सोद्धवाः म्युस्तदुद्भवे ॥ २४ ॥ तदा सर्वर्तवस्तत्र स्वैः स्वैर्भावैर्मनोहरैः। प्रादुर्बभूवुः सम्भूय सर्वाङ्गिसुखहेतवः ॥ २५ ॥ सरोगाः प्रापुरारोग्यं शोकिनो वीतशोकताम् । धर्मिष्ठतां च पापिष्ठाश्चित्रमीशसमुद्भवे ॥ २६ ॥ जनस्य चेदर्य तोषस्तदानीमतिमात्रया । पित्रोस्तस्य प्रमोदस्य प्रमा केन विधीयते ॥ २७ ॥
कर्मका बन्ध किया और आयुके अन्तमें समाधिमरण कर सोलहवें अच्युत स्वर्गके पुष्पोत्तर विमानमें अच्युत नामका इन्द्र हुआ। वहाँ बाईस सागर प्रमाण उसकी आयु थी, तीन हाथ ऊँचा शरीर था, और ऊपर जिनका वर्णन आ चुका है ऐसी लेश्या आदिसे सहित था ॥ १३-१४ ॥ दिव्य भावोंको धारण करनेवाली सुन्दर देवियोंके साथ उसने बहुत समय तक प्रतिदिन उत्तमसे उत्तम सुखोंका बड़ी प्रीतिसे उपभोग किया ॥ १५ ॥ कल्पातीत-सोलहवें स्वर्गके आगेके अहमिन्द्र विराग हैं-राग रहित हैं और अन्य देव अल्प सुखवाले हैं इसलिए संसारके सबसे अधिक सुखोंसे संतुष्ट होकर वह अपनी आयु व्यतीत करता था ॥ १६ ॥ वहाँ के सुख भोगकर जब वह यहाँ आनेके लिए उद्यत हुआ तब इसी जम्बूद्वीपके भरत क्षेत्रमें सिंहपुर नगरका स्वामी इक्ष्वाकु वंशसे प्रसिद्ध विष्णु नामका राजा राज्य करता था ।।१७। उसकी वल्लभाका नाम सुनन्दा था।सुनन्दाने गर्मधारणके छह माह पूर्वसेही रनवृष्टि आदि कई तरहकी पूजा प्राप्त की थी॥१८॥ज्येष्ठकृष्ण षष्ठीके दिन श्रवण नक्षत्रमें प्रातःकालके समय उसने सोलह स्वप्न तथा अपने मुखमें प्रवेश करता हुआ हाथी देखा ॥ १६ ॥ पतिसे उनका फल जानकर वह बहुत ही हर्षको प्राप्त हुई । उसी समय इन्द्रोंने आकर गर्भ-कल्याणकका महोत्सव किया ॥२०॥ उत्तम सन्तानको धारण करनवाली सुनन्दाने पूर्वोक्त विधिसे नौ माह बि फाल्गुनकृष्ण एकादशीके दिन विष्णुयोगमें तीन ज्ञानोंके धारक तथा महाभाग्यशाली उस अच्युतेन्टको संसारके संतोषके लिए उस प्रकार उत्पन्न किया जिस प्रकार कि मेघमाला उत्तम वृष्टिको उत्पन्न करती है ॥२१-२२ । जिस प्रकार शरद-ऋतुके आनेपर सब जगहके जलाशय शीघ्र ही प्रसन्न-स्वच्छ हो जाते हैं उसी प्रकार उनका जन्म होते ही सब जीवोंके मन प्रसन्न हो गये थेहर्षसे भर गये थे ॥ २३ ॥ भगवान्का जन्म होनेपर याचक लोग धन पाकर हर्षित हुए थे, धनी लोग दीन मनुष्योंको संतुष्ट करनेसे हर्षित हुए थे और वे दोनों इष्ट भोग पाकर सुखी हुए थे॥२४॥ उस समय सब जीवोंको सुख देनेवाली समस्त ऋतुएँ मिलकर अपने-अपने मनोहर भावोंसे प्रकट हुई थीं ॥ २५ ॥ बड़ा आश्चर्य था कि उस समय भगवानका जन्म होनेपर रोगी मनुष्य नीरोग हो गये थे, शोकवाले शोकरहित हो गये थे, और पापी जीव धर्मात्मा बन गये थे ॥ २६ ॥ जब उस समय साधारण मनुष्योंको इतना संतोष हो रहा था तब माता-पिताके संतोषका प्रमाण कौन
१ वा स्याद्विकल्पोपमयोरिवार्थेऽपि समुच्चये' इति कोशः ! २ दीनतर्पणात् ग० । ३ सोद्धवाः सहर्षाः "क्षण उद्धव उत्सवः" ।
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