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सप्तपञ्चाशत्तमं पर्व
'श्रेयः श्रेयेषु मास्त्यन्यः श्रेयसः श्रेयसे बुधैः । इति ४ श्रेयोऽर्थिभिः श्रेयः श्रेयांसः श्रेयसेऽस्तु नः ॥ १ ॥ पुष्करार्द्धन्द्रदिग्मेरुप्राग्विदेहे सुकच्छके । सीतानयुसरे देशे नृपः क्षेमपुराधिपः ॥ २ ॥ मलिनप्रभनामाभूतमिताशेषविद्विषः । प्रजानुरागसम्पादिताचिन्त्य महिमाश्रयः ॥ ३ ॥ पृथक्त्रिभेदनिर्णातिशक्तिसिद्धयुदयोदितः । शमव्यायामसम्प्रासक्षेमयोगोऽयमैधत ॥ ४ ॥ भूभृनमर्थवत्तस्मिन्यस्मान्न्यायेन पालनात् । स्थितौ सुस्थाप्य सुस्निग्धां धरामधित स प्रजाः ॥ ५ ॥ धर्मं एत्रापरे धर्मस्तस्मिन्सन्मार्गवर्तिनि । अर्थकामौ च धम्यों यत्तत् स धर्ममयोऽभवत् ॥ ६ ॥ एवं स्वकृतपुण्यानुभावोदितसुखाकरः । लोकपालोपमो दीर्घं पालयनिखिलामिलाम् ॥ ७ ॥ " सहस्रान्रवणेऽनन्तजिनं तद्वनपालकात् । भवतीर्ण विदित्वात्मपरिवारपरिष्कृतः ॥ ८ ॥ गत्वाऽभ्यर्च्य चिरं स्तुत्वा नत्वा स्वोचितदेशभाक् । श्रुत्वा धर्मं समुत्पन्नतत्त्वबुद्धिरिति स्मरन् ॥ ९ ॥ कस्मिन् केन कथं कस्मात् कस्य किं श्रेय इत्यदः । अजानता मया भ्रान्तं श्रान्तेनानन्तजन्मसु ॥ १० ॥ भहितो बहुधा मोहान्मयैवैष परिग्रहः । तस्यागाद्यदि निर्वाणं कस्मात्कालविलम्बनम् ॥ ११ ॥ --इति नाना सुपुत्राय पुत्राय गुणशालिने । दत्त्वा राज्यं समं भूयैर्बहुभिः संयमं ययौ ॥ १२ ॥ शिक्षितैकादशाङ्गोऽसौ तीर्थकृत्रामधाम सन् । संन्यस्याजनि कल्पेऽन्ते सुराधीशोऽच्युताइयः ॥ १३ ॥
जो आश्रय लेने योग्य हैं उनमें श्रेयान्सनाथको छोड़कर कल्याणके लिए विद्वानोंके द्वारा और दूसरा आश्रय लेने योग्य नहीं है-इस तरह कल्याणके अभिलाषी मनुष्योंके द्वारा आश्रय करने योग्य भगवान् श्रेयांसनाथ हम सबके कल्याणके लिए हों ॥ १ ॥ पुष्करार्ध द्वीपसम्बन्धी पूर्व विदेह क्षेत्रके सुकच्छ देशमें सीता नदीके उत्तर तटपर क्षेमपुर नामका नगर है । उसमें समस्त शत्रुओंको नम्र करनेवाला तथा प्रजाके । अनुराग से प्राप्त अचिन्त्य महिमाका श्राश्रयभूत नलिनप्रभ नामका राजा राज्य करता था ।। २-३ ॥ पृथक्-पृथक् तीन भेदोंके द्वारा जिनका निर्णय किया गया है ऐसी शक्तियों, सिद्धियों और उदयोंसे जो अभ्युदयको प्राप्त है तथा शान्ति और परिश्रम से जिसे क्षेम और योग प्राप्त हुए हैं ऐसा यह राजा सदा बढ़ता रहता था ॥ ४ ॥ वह राजा न्यायपूर्वक प्रजाका पालन करता था और स्नेह पूर्ण पृथिवीको मर्यादामें स्थित कर उसका भूभृत्पना सार्थक था ॥ ५ ॥ समीचीन मार्ग में चलनेवाले उस श्रेष्ठ राजामें धर्म तो धर्म ही था, किन्तु अर्थ तथा काम भी धर्मयुक्त थे । अतः वह धर्ममय ही था ॥ ६ ॥ इस प्रकार स्वकृत पुण्यकर्मके उदयसे प्राप्त सुखकी खान स्वरूप यह राजा लोकपालके समान इस समस्त पृथिवीका दीर्घकाल तक पालन करता रहा ||७|| एक दिन वनपालसे उसे मालूम हुआ कि सहस्राम्रवणमें अनन्त जिनेन्द्र अवतीर्ण हुए हैं तो वह अपने समस्त परिवारसे युक्त होकर सहस्राम्रवणमें गया । वहाँ उसने जिनेन्द्रदेव की पूजा की, चिरकाल तक स्तुति की, नमस्कार किया और फिर अपने योग्य स्थान पर बैठ गया । तदनन्तर धर्मोपदेश सुनकर उसे तत्वज्ञान उत्पन्न हुआ जिससे इस प्रकार चिन्तवन करने लगा कि किसका कहाँ किसके द्वारा किस प्रकार किससे और कितना कल्याण हो सकता यह न जान कर मैंने खेद - खिन्न होते हुए अनन्त जन्मों में भ्रमण किया है। मैंने जो बहुत प्रकारका परिग्रह इकट्ठा कर रक्खा है वह मोह वश ही किया है इसलिए इसके त्यागसे यदि निर्वाण प्राप्त हो सकता है, तब समय बितानेसे क्या लाभ है ? ।। ८-११ ।। ऐसा विचार कर उसने गुणोंसे सुशोभित सुपुत्र नामक पुत्रके लिए राज्य देकर बहुतसे राजाओं के साथ संयम धारण कर लिया ।। १२ ।। ग्यारह अंगोंका अध्ययन किया, तीर्थकर नाम
१ श्रयणीयः । २ श्रेयेषु श्राश्रयणीयेषु । ३ श्रेयसः एकादशतीर्थकरात् । ४ कल्याणार्थिभिः । ५ सहस्राम्रवने ल । ६ सुपुत्राय सुपुत्रगुणशालिने ख०, ग०, ल० ।
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