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षट्पञ्चाशत्तमं पर्व
इति प्राहैवमुक्तेऽपि राज्ञा तनावमन्यता । कपोतलेश्यामाहात्म्यादन्यदानप्रदित्सया ॥ ७८॥ तत्रैव नगरे भूतिशाख्यो ब्राह्मणोऽभवत् । प्रणीतदुश्रुतीः राज्ञोऽरञ्जयत्स्वमनीषया ॥ ७९ ॥ तस्मिन्नुपरते तस्य तनयः सर्वशास्त्रवित् । मुण्डशालायनो जासस्तत्रासीनोऽब्रवीदसौ ॥ ८ ॥ मुनीनां दुबिंधानां च दानत्रयमिदं मतम् । १महेच्छानां महीशानां दानमस्त्यन्यदुत्तमम् ॥ ८॥ भूसुवर्णादिभूयिष्ठमाचन्द्रार्कयशस्करम् । शापानुग्रहशालिभ्यो ब्राह्मणेभ्यः प्रयच्छत ॥ ८२ ॥ आर्षमत्र श्रत चास्ति दानस्यास्योपदेशकम् । इत्यानीय गृहारवोक्तं तत्पुस्तकमवाचयत् ॥ ८३॥ इत्थं तेनेणितज्ञेन लब्ध्वावसरमुत्पथम् । मुण्डशालायनेनोक्तं राजा तद्बह्वमन्यत ॥ ८४ ॥ पापामीरोरभद्रस्य विषयान्धस्य दुर्मतेः। रञ्जितः स महीपालः परलोकमहाशया ॥८५॥ कदाचित्कार्तिके मासे पौर्णमास्यां शुचीभवन् । मुण्डशालायन भक्त्या पूजयित्वाक्षतादिभिः ॥८६॥ भूसुवर्णादितत्प्रोक्तदानान्यदित दुर्मतिः। तं दृष्ट्रा भक्तिमान् भूपममात्यः २प्रत्युवाच तम् ॥ ८७ ॥ अनुग्रहार्थ स्वस्यातिसर्गो दान जिनैर्मतम् । स्वपरोपकृति प्राहुरत्र तज्ज्ञा अनुग्रहम् ॥ ८८ ॥ स्वोपकारोऽयसंघृद्धिः परस्य गुणवर्द्धनम् । स्वशब्दो धनपर्यायवाची पात्रेऽतिसर्जनम् ॥ ८९ ॥ स्वस्य दानं प्रशंसन्ति तजानमपि किं वृथा। कुपात्रेऽर्थ विसृष्ट्रैवं प्रयाणां विहतिः कृता ॥ ९॥ सुबीजं सुप्रभूतं च प्रक्षिप्तं किं तदूषरे । फलं भवति सङ्कुश-बीजनाश-फलाद्विना ॥९॥
होता है । ७७॥ इस प्रकार कहे जानेपर भी राजाने दानका यह निरूपण स्वीकृत नहीं किया क्योंकि वह कपोतलेश्याके माहात्म्यसे इन तीन दानोंके सिवाय और ही कुछ दान देना चाहता था ।। ७८॥
उसी नगरमें एक भूतिशर्मा नामका ब्राह्मण रहता था। वह अपनी बुद्धिके अनुसार खोटे
ख बनाकर राजाको प्रसन्न किया करता था ।। ७६ ।। उसके मरने पर उसका मुण्डशालायन नामक पुत्र समस्त शास्त्रोंका जाननेवाला हुआ। वह उस समय उसी सभामें बैठा हुआ था अतः मंत्रीके द्वारा पूर्वोक्त दानका निरूपण समाप्त होते ही कहने लगा ।। ८०॥ कि ये तीन दान मुनियोंके लिए अथवा दरिद्र मनुष्यों के लिए हैं। बड़ी-बड़ी इच्छा रखनेवाले राजाओंके लिए तो दूसरे ही उत्तम दान हैं ।। ८१ ॥ शाप तथा अनुग्रह करनेकी शक्तिसे सुशोभित ब्राह्मणोंके लिए, जब तक चन्द्र अथवा सूर्य हैं तब तक यशका करनेवाला पृथिवी तथा सुवर्णादिका बहुत भारी दान दीजिए ॥२॥ इस दानका समर्थन करनेवाला ऋषिप्रणीत शास्त्र भी विद्यमान है, ऐसा कहकर वह अपने घरसे अपनी बनाई हुई पुस्तक ले आया और सभामें उसे बचवा दिया ॥८३ । इस प्रकार अभिप्रायको जाननेवाले मुण्डशालायनने अवसर पाकर कुमार्गका उपदेश दिया और राजाने उसे
-उसका सत्कार किया ॥८४॥ देखो, मुण्डशालायन पापसे नहीं डरता था, अभद्र था, विषयान्ध था और दुर्बुद्धि था फिर भी राजा परलोककी बड़ी भारी आशासे उसपर अनुरक्त हो गया-प्रसन्न हो गया ।। ८५ ॥ किसी समय कार्तिक मासकी पौर्णमासीके दिन उस दुर्बुद्धि राजाने शुद्ध होकर बड़ी भक्तिके साथ अक्षतादि द्रव्योंसे मुण्डशालायनकी पूजा कर उसे उसके द्वारा कहे हुए भूमि तथा सुवर्णादिके दान दिये। यह देख भक्त मंत्रीने राजासे कहा ।। ८६-८७ ॥ अनुग्रहके लिए अपना धन या अपनी कोई वस्तु देना सो दान है ऐसा जिनेन्द्र भगवानने कहा है और इस विषयके जानकार मनुष्य अपने तथा परके उपकारको ही अनुग्रह कहते हैं ॥८॥ पुण्य कर्मकी वृद्धि होना यह अपना उपकार है-अनुग्रह है और परके गुणोंकी वृद्धि होना परका उपकार है। स्व शब्द धनका पर्यायवाची है। धनका पात्रके लिए देना स्व दान कहलाता है। यही दान प्रशंसनीय दान है फिर जानते हुए भी आप इस प्रकार कुपात्रके लिए धन दान देकर श्राप दाता, दान और पात्र तीनोंको क्यों नष्ट कर रहे हैं।६६-६०॥ उत्तम बीज कितना ही अधिक क्यों न हो, यदि ऊसर जमीनमें डाला जावेगा तो उससे संलश और बीज नाश-रूप फलके सिवाय और क्या होगा?
१ महेशानां महीशाना ग० । २ प्रत्युवाचत ल० । ३ अयस्य पुण्यकर्मणः संवृद्धिरयसंवृद्धिः, स्वोपकारः ।
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