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महापुराणे उत्तरपुराणम् तदा मलयदेशेशो निवसन् भद्रिले पुरे । राजा मेघरथस्तस्य सचिवः सत्यकीर्तिवाक ॥६४ ॥ स कदाचित्सभागेहे सिंहासनमधिष्ठितः । आपृच्छत सभासीनान् धर्मार्थ द्रव्यदित्सया ॥६५॥ दानेषु कतमद्दानं दत्तं बहुफलं भवेत् । इत्यतो मतिवाक्सारः सचिवो दानतत्ववित् ॥६६॥ शास्त्राभयानदानानि प्रोक्तानि मुनिसत्तमैः । पूर्वपूर्वबहूपात्तफलानीमानि धीमताम् ॥ ६ ॥ पूर्वापरविरोधादिदूरं हिंसाद्यपासनम् । प्रमाणद्वयसंपादिर शास्त्रं सर्वज्ञभाषितम् ॥ ६८॥ भूयः संसारभीरूणां सतामनुजिघृक्षया । व्याख्यानं तस्य शास्त्रस्य शास्त्रदानं तदुच्यते ॥ ६९ ॥ मुमुक्षोष्टतत्त्वस्य बन्धहेतुजिहासया। प्राणिपीडापरित्यागस्तहानमभयाइयम् ॥ ७० ॥ हिंसादिदोषदूरेभ्यो ज्ञानिभ्यो वायसाधनम् । प्राहुराहारदानं तच्छुद्धाहारातिसर्जनम् ॥ १॥ आभ्यामाद्यन्तदानाभ्यामुभयोः कर्मनिर्जरा । पुण्यात्रवश्च शेषेण दातुस्तदुभयं भवेत् ॥ ७२॥ न ज्ञानात्सन्ति दानानि विना ज्ञानं न शास्त्रतः। हेयोदेयादितत्त्वावभासनं परमं हि तत् ॥ ७३॥ तयाख्यातं तं सम्यक भावितं शुद्धबुद्धये । ४तयोहेयं परित्यज्य हितमादाय सव्रताः ॥ ७॥ मुक्तिमार्ग समाश्रित्य "क्रमाच्छान्तेन्द्रियाशयाः। शुक्लध्यानमभिष्टाय प्रानुवन्त्यमृतं पदम् ॥ ७५॥ तस्माद् दानेषु तच्छृष्ठं प्रदातुर्ग्रहतामपि । निरवयं निजानन्दनिर्वाणपदसाधनम् ॥ ७६॥ अन्त्यादप्यल्पसावधादभयाख्यमभिष्टुतम् । त्रिभिरेभिर्महादानैः प्राप्नोति परमं पदम् ॥ ७७ ॥
उस समय भद्रिलपुरमें मलय देशका स्वामी राजा मेघरथ रहता था, उसके मंत्रीका नाम सत्यकीर्ति था ॥ ६४ ॥ किसी एक दिन राजा मेघरथ सभा-भवनमें सिंहासन पर बैठे हुए थे, उसी समय उन्होंने धर्मके लिए धन दान करनेकी इच्छासे सभामें बैठे हुए लोगोंसे कहा ॥६५॥ कि सब दानोंमें ऐसा कौन-सा दान है कि जिसके देनेपर बहुत फल होता हो ? इसके उत्तर में दानके तत्त्वको जाननेवाला मंत्री इस प्रकार कहने लगा॥६६।। कि श्रेष्ठ मुनियोंने शास्त्रदान, अभयदान और अन्नदान ये तीन प्रकारके दान कहे हैं। ये दान बुद्धिमानोंके लिए पहले-पहले अधिक फल देनेवाले हैं अर्थात् अन्नदानकी अपेक्षा अभयदानका और अभयदानकी अपेक्षा शास्त्रदानका बहुत फल है ।। ६७ ॥ जो सवेश-देवका कहा हुआ हो, पूवोपरविरोध आदि दोषोसे रहित हो, हिंसादि पापोंको दूर करनेवाला हो और प्रत्यक्ष परोक्ष दोनों प्रमाणोंसे सम्पन्न हो उसे शास्त्र कहते हैं ॥ ६८ ।। संसारके दुःखोंसे डरे हुए सत्पुरुषोंका उपकार करनेकी इच्छासे पूर्वोक्त शास्त्रका व्याख्यान करना शास्त्रदान कहलाता - है ॥ ६६ ॥ मोक्ष प्राप्त करनेका इच्छुक तथा तत्त्वोंके स्वरूपको जाननेवाला मुनि कर्मबन्धके कारणोंको छोड़नेकी इच्छासे जो प्राणिपीडाका त्याग करता है उसे अभयदान कहते हैं ।। ७० ।। हिंसादि दोषोंसे दूर रहनेवाले ज्ञानी साधुओंके लिए शरीरादि बाह्य साधनोंकी रक्षाके अर्थ जो शुद्ध आहार दिया जाता है उसे आहारदान कहते हैं।७१। इन आदि और अन्तके दानोंसे देने तथालेनेवाले दोनोंको ही कर्मोकी निर्जरा एवं पुण्प कर्मका बास्त्रव होता है और अभयदानसे सिर्फ देनेवालेके ही उक्त दोनों फल होते हैं।७२।।इस संसारमें ज्ञानसे बढ़कर अन्य दान नहीं हैं और ज्ञान शास्त्रके बिना नहीं हो सकता। वास्तवमें शास्त्र ही हेय और उपादेय तत्त्वोंको प्रकाशित करनेवाला श्रेष्ठ साधन है ॥७३ ।। शास्त्रका अच्छी तरह व्याख्यान करना, सुनना और चिन्तवन करना शुद्ध बुद्धिका कारण है । शुद्ध बुद्धिके होने पर ही भव्य जीव हेय पदार्थको छोड़कर और हितकारी पदार्थको ग्रहण कर व्रती बनते हैं, मोक्षमार्गका अवलम्बन लेकर क्रम-क्रमसे इन्द्रियों तथा मनको शान्त करते हैं और अन्तमें शुक्लध्यानका अवलम्बन लेकर अविनाशी मोक्ष पद प्राप्त करते हैं ॥७४-७५ ॥ इसलिए सब दानोंमें शास्रदान ही श्रेष्ठ है, पाप-कार्योंसे रहित है तथा देने और लेनेवाले दोनोंके लिए ही निजानन्द रूप मोझ-प्राप्तिका कारण है ॥७६ ॥ अन्तिम आहारदानमें थोड़ा प्रारम्भ-जन्य पाप करना पड़ता है इसलिए उनकी अपेक्षा अभयदान श्रेष्ठ है। यह जीव इन तीन महादानोंके द्वारा परम पदको प्राप्त
३ हेयोपेयादि ल०। ४ तदा हेयं ख..ग०। ५क्रमात
१कीर्तिभाक ख.। २ संवादिल०। शातेन्द्रियाशयाः क०, घ०।
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