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षट्पञ्चाशत्तमं पर्व
विहृत्य विविधान् देशान् भव्य मिथ्यादृशो बहून् । सम्यक्त्वादिगुणस्थानान्यापयन् ' धर्मदेशनात् ॥५६॥ सम्मेदशैलमासाद्य मासमात्रोज्झितक्रियः । प्रतिमायोगमासाद्य सहस्रमुनिसंवृतः ॥ ५७ ॥ धवलाश्वयुजाष्टम्यां पूर्वाषाढेऽपराह्नगः । नाशिताशेषकर्मारिः सम्प्रापत्परमं पदम् ॥ ५८ ॥ कृत्वा पञ्चमकल्याणं देवेन्द्रा द्योतिताखिलाः । स्वदेहद्युतिभिः स्तुत्वा शीतलं संसृता दिवम् ॥ ५९ ॥
शार्दूलविक्रीडितवृत्तम्
यस्योत्पादमनुप्रसादमगमच्चन्द्रोदयाद्वा जगत्
बन्धूनां व्यकसन्मुखानि निखिलान्यब्जानि वोष्णद्युतेः । अर्थान् प्राप्य समीप्सितान् बहुमुदान्स नर्थवन्तोऽर्थिनः
तं वन्दे त्रिदशार्चितं रतितृषानिःशेषिणं शीतलम् ॥ ६० ॥ दिङ्मातङ्गकपोलमूलगलितैर्दानैस्ततामोदनै
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देवार्थेन्दुनिभोज्ज्वलोत्तिलकिकास्तद्दत्तपर्यङ्कके२ ॥ दिक्कन्याः कलकण्ठिकाश्च रचितैर्गायन्ति वर्णाक्षरै
स्यात्युद्धतमोहवीरविजयं तं शीतलं संस्तुवे ॥ ६१ ॥ रथोद्धतावृत्तम्
पद्मगुल्ममखिलैः स्तुतं गुणैरारणेन्द्रममराचितं ततः । तीर्थकृत्सुदशमं दयामयं शीतलं नमत सर्वशीतलम् ॥ ६२ ॥
अनुष्टुप्
शीतलेशस्य तीर्थान्ते सद्धर्मो नाशमेयिवान् । वक्तृश्रोतृचरिष्णूनामभावात्कालदोषतः ॥ ६३ ॥
दो लाख श्रावक और तीन लाख श्राविकाएँ उनकी अर्चा तथा स्तुति करती थीं, असंख्यात देवदेवियाँ उनका स्तवन करती थीं और संख्यात तिर्यन उनकी सेवा करती थीं ।। ५०-५५ ।। असंख्यात देशों में विहार कर धर्मोपदेशके द्वारा बहुतसे भव्य मिध्यादृष्टि जीवोंको सम्यक्त्व आदि गुणस्थान प्राप्त कराते हुए वे सम्मेदशिखर पर पहुँचे। वहाँ एक माहका योग-निरोध कर उन्होंने प्रतिमा योग धारण किया और एक हजार मुनियोंके साथ आश्विन शुक्ल अष्टमीके दिन सायंकाल के समय पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में समस्त कर्म-शत्रुओं को नष्टकर मोक्ष प्राप्त किया ।। ५६-५८ ।। अपने शरीरकी कान्ति पदार्थों को प्रकाशित करनेवाले इन्द्र पंचम कल्याणक कर तथा शीतलनाथ जिनेन्द्रकी स्तुति कर स्वर्गको चले गये ॥ ५६ ॥
जिनका जन्म होते ही संसार इस प्रकार प्रसन्नताको प्राप्त हो गया जिस प्रकार कि चन्द्रोदयसे होता है । समस्त भाई-बन्धुओंके मुख इस प्रकार विकसित हो गये जिस प्रकार कि सूर्यसे कमल विकसित हो जाते हैं और याचक लोग इच्छित पदार्थ पाकर बड़े हर्षसे कृतकृत्य हो गये उन देव पूजित, रति तथा तृष्णाको नष्ट करनेवाले शीतल जिनेन्द्रकी मैं वन्दना करता हूँ-स्तुति करता हूँ ॥ ६० ॥ दिग्गजोंके कपोलमूलसे गलते हुए तथा सबको सुगन्धित एवं हर्षित करनेवाले मद-जलसे जिन्होंने ललाट पर अर्धचन्द्राकार तिलक दिया है, जिनके कण्ठ मधुर हैं ऐसी दिक्कन्याएँ स्वरचित पद्योंके द्वारा जिनकी अत्यन्त उद्दण्ड मोहरूपी शूर-वीरको जीत लेनेके गीत गाती हैं उन शीतल जिनेन्द्रकी मैं स्तुति करता हूँ ॥ ६१ ॥ जो पहले सब तरहके गुणोंसे स्तुत्य पद्मगुल्म नामके राजा हुए, फिर देवोंके द्वारा पूजित आरण स्वर्गके इन्द्र हुए और तदनन्तर दशम तीर्थंकर हुए उन दयालु तथा सबको शान्त करनेवाले श्री शीतल जिनेन्द्रको हे भव्य जीवो ! नमस्कार करो ।। ६२ ॥
श्रथानन्तर- श्री शीतलनाथ भगवान्के तीर्थके अन्तिम भागमें काल-दोषसे वक्ता, श्रोता और आचरण करनेवाले धर्मात्मा लोगोंका अभाव हो जानेसे समीचीन जैन धर्मका नाश हो गया ॥ ६३ ॥ १-यायोजन ल० । २ तद्दत्तपर्यन्तके ख० । तद्दन्तिपर्यन्तके ल० ।
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