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महापुराणे उत्तरपुराणम् कर्म स्यास्किं न वा पुण्यं कर्म चेत्कर्मणा कुतः । सुखं रतिविकाराभिलाषदोषवतोऽशिनः ॥४०॥ विषयैरेव चेत्सौख्यं तेषां पर्यन्तगोऽस्म्यहम् । ततः कुतो न मे तृप्तिः मिथ्यावैषयिकं सुखम् ॥ ११ ॥ भौबासीन्यं सुखं तच सति मोहे कुतस्ततः। मोहारिरेव निर्मूलं विलय प्रापये व्रतम् ॥ ४२॥ इत्याककग्य याथात्म्य हेयपक्षे निवेशितम् । दत्त्वा पुत्राय साम्राज्य मोहिनामादरावहम् ॥ ४३ ॥ लन्धलौकान्तिकस्तोत्रः प्राप्ततत्कालपूजनः । शुक्रप्रभा समारुह्य सहेतुकवनान्तरे ॥ १४ ॥ पूर्वाषाढ माघमासे कृष्णद्वादश्यहाक्षये। उपवासद्वयी राजसहस्रेणैत्य संयमम् ॥ ४५ ॥ चतुर्मानो द्वितीयेऽसि चर्यार्थ प्रविष्टवान् । अरिष्टनगरं तस्मै नवपुण्यः पुनर्वसुः॥ ४६॥ . नाम्ना नरपतिर्दत्वा परमानं प्रमोदवान् । वितीर्णममरैस्तुष्टः प्रापदाश्चर्यपञ्चकम् ॥ ४७ ॥ छानस्थ्येन समास्तिस्रो नीत्वा बिल्वदमाश्रयः । पौषकृष्णचतुर्दश्यां पूर्वाषाढेऽपराह्नगे ॥४८॥ दिनद्वयोपवासेन कैवल्यं कनकद्युतिः । प्रापदाप्य तदा देवाः तस्य पूजामकुर्वत ॥ ४९ ॥ अनगारख्यमुख्यैकाशीतिसप्तर्विसत्तमः । शून्यद्वययुगैकोक्तपूज्यपूर्वधरान्वितः ॥ ५० ॥ शून्यद्वयद्विरन्धेन्द्रियोक्तशिक्षकलक्षितः। शून्यद्वयद्विसप्ताकज्ञानत्रयविलोचनः ॥५१॥ शून्यत्रितयसतोक्तपञ्चमावगमान्वितः । शून्यत्रितयपक्षकविक्रियड़ियतीडितः ॥ ५२ ॥ खद्विकेन्द्रियसप्तोक्तमनःपर्ययसंयतः । शून्यद्वयडिंपञ्चोक्तवादिमुख्याञ्चितक्रमः ॥ ५३॥ एकीकृतयतिवात लक्षासमुपलक्षितः । खचतुष्काष्टवयुक्तधरणाद्यायिंकान्वितः ॥ ५४ ॥ उपासकद्विलक्षाो द्विगुणश्राविकानुतः । असङ्ख्यदेवदेवीडयस्तिर्यसंख्यातसेवितः॥ ५५ ॥
है ।। ३६ ।। कर्म पुण्यरूप हों अथवा न हों, यदि कर्म विद्यमान हैं तो उनसे इस जीवको सुख कैसे मिल सकता है ? क्योंकि यह जीव राग-द्वेष तथा अभिलाषा आदि अनेक दोषोंसे युक्त है ॥४०॥ यदि विषयोंसे ही सुख प्राप्त होता है तो मैं विषयोंके अन्तको प्राप्त हूँ अर्थात् मुझे सबसे अधिक सुख प्राप्त हैं फिर मुझे संतोष क्यों नहीं होता। इससे जान पड़ता है कि विषय-सम्बन्धी सुख मिथ्या सुख है ॥ ४१ ॥ उदासीनता ही सच्चा सुख है और वह उदासीनता मोहके रहते हुए कैसे हो सकती है ? इसलिए मैं सर्वप्रथम इस मोह शत्रुको ही शीघ्रताके साथ जड़-मूलसे नष्ट करता हूँ॥४२॥ इस प्रकार पदार्थके यथार्थ स्वरूपका विचार कर उन्होंने विवेकियोंके द्वारा छोड़नेके योग्य और मोही जीवोंके द्वारा आदर देनेके योग्य अपना सारा साम्राज्य पुत्रके लिए दे दिया। ॥४३॥ उसी समय आये हुए लौकान्तिक देवोंने जिनकी स्तुति की है तथा उन्होंने दीक्षा-कल्याणक पूजा प्राप्त की है ऐसे भगवान् शीतलनाथ शुक्रप्रभा नामकी पालकी पर सवार होकर सहेतुक वनमें पहुँचे॥४४॥ वहाँ उन्होंने माघकृष्ण द्वादशीके दिन सायंकालके समय पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में दो उपवासका नियम लेकर एक हजार राजाओंके साथ संयम धारण किया ।। ४५ ॥ चार ज्ञानके धारी भगवान दसरे दिन चर्या के लिए अरिष्ट नगरमें प्रविष्ट हुए। वहाँ नवधा भक्ति करनेवाले पुनर्वसु राजाने बड़े हर्षके साथ उन्हें खीरका आहार देकर संतुष्ट देवोंके द्वारा प्रदत्त पञ्चाश्चर्य प्राप्त किये ।।४६-४७॥ तदनन्तर छास्थ अवस्थाके तीन वर्ष बिताकर वे एक दिन बेलके वृक्षके नीचे दो दिनके उपवासका नियम लेकर विराजमान हुए। जिससे पौषकृष्ण चतुर्दशीके दिन पूर्वाषाढ़ नक्षत्रमें सायंकालके समय सुवर्णके समान कान्तिवाले उन भगवानने केवलज्ञान प्राप्त किया। उसी समय देवोंने आकर उनके ज्ञान-कल्याणककी पूजा की ॥ ४५-४६ ।। उनकी सभामें सप्त ऋद्धियोंको धारण करनेवाले अनगार
आदि इक्यासी गणधर थे। चौदह सौ पूर्वधारी थे, उनसठ हजार दो सौ शिक्षक थे, सात हजार दो सौ अवधिज्ञानी थे, सात हजार केवलज्ञानी थे, बारह हजार विक्रिया ऋद्धिके धारक मुनि उनकी पूजा करते थे, सात हजार पाँच सौ मनःपर्ययज्ञानी उनके चरणोंकी पूजा करते थे, इस तरह सब मुनियोंकी संख्या एक लाख थी, धरणा आदि तीन लाख अस्सी हजार आर्यिकाएँ उनके साथ थीं,
१ याथात्म्यहेय ल० । २ उपवासद्वयो ख०, ल०। ३ लक्षः समुप-ख.। लक्षसमुप-ल० । ४ धारणाद्या ल०।
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