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महापुराणे उत्तरपुराणम् स सुखेप्सुर्वसन्तश्रीविवशीकृतमानसः । तया विवृद्धसम्प्रीतिराक्रीडति निरन्तरम् ॥ १२॥ सापि कालानिलोख़्ता घनाली वा व्यलीयत । तदपायसमुद्भूतशोकन्याकुलिताशयः ॥१३॥ कामो नाम खलः कोऽपि तापयत्यखिलं जगत् । पापी सकलचित्तस्थो विग्रही 'विग्रहाद्विना ॥१४॥ तं ध्यानानलनिर्दग्धमथैव विदधाम्यहम् । इत्याविर्भूतवैराग्यश्चन्दने निजनन्दने ॥ १५॥ राज्यभार समारोप्य मुनिमानन्दनामकम् । सम्प्राप्य सर्वसनाङ्गवैमुख्यं स समीयिवान् ॥१६॥ विपाकसूत्रपर्यन्तसकलाधरः शमी। स्वीकृत्य तीर्थकृवाम विधाय सुचिरं तपः ॥१७॥ सम्प्राप्य ४जीवितस्यान्तं त्रिधाराधनसाधनः । आरणाख्येऽभवत्कल्पे सुरेन्द्रो परुन्द्रवैभवः ॥ १८॥ द्वाविंशत्यब्धिमानायुः हस्तनितयविग्रहः । शुक्ललेश्याद्वयो मासैः सदैकादशभिः श्वसन् ॥ १९ ॥ द्वाविंशतिसहस्राब्दैर्मानसाहारतपितः। श्रीमान् मनःप्रवीचारः 'प्राकाम्याचष्टधागुणः ॥ २० ॥ प्राक्षष्टनरकाद् व्याप्ततृतीयज्ञानभास्वरः। तत्प्रमाणबलस्तावत् प्रकाशतनुविक्रियः॥ २१॥ वीतबाह्यविकारोरुवरसौख्याब्धिपारगः । कलामिव किलासल्यामयमायुरजीगमत् ॥ २२॥ तस्मिन्भुवं समायाति षण्मासस्थितिजीविते । द्वीपेऽस्मिन् भारते वर्षे विषये मल याहये ॥ २३ ॥ राजा भद्रपुरे वंशे पुरोईढरथोऽभवत् । महादेवी सुनन्दास्य तद्गृहं धनदाशया ॥ २४ ॥ रत्नैरपूरयन् देवाः षण्मासैर्गुह्यकाइयाः । सापि स्वमानिशाप्रान्ते षोडशालोक्य मानिनी ॥ २५ ॥
जाता है ? ॥ ११॥ जिसका मन वसन्त-लक्ष्मीने अपने अधीन कर लिया है तथा जो अनेक सुख प्राप्त करना चाहता है ऐसा वह राजा प्रीतिको बढ़ाता हुआ उस वसन्तलक्ष्मीके साथ निरन्तर क्रीड़ा करने लगा ॥ १२ ॥ परन्तु जिस प्रकार वायुसे उड़ाई हुई मेघमाला कहीं जा छिपती है उसी प्रकार कालरूपी वायुसे उड़ाई वह वसन्त-ऋतु कहीं जा छिपी-नष्ट हो गई और उसके नष्ट होनेसे उत्पन्न हुए शोकके द्वारा उसका चित्त बहुत ही व्याकुल हो गया ॥ १३ ॥ वह विचार करने लगा कि यह काम बड़ा दुष्ट है, यह पापी समस्त संसारको दुःखी करता है, सबके चित्तमें रहता है और विग्रहशरीर रहित होनेपर भी विग्रही-शरीरसहित (पक्षमें उपद्रव करनेवाला) है ।। १४ ।। मैं उस कामको आज ही ध्यानरूपी अग्निके द्वारा भस्म करता हूँ। इस प्रकार उसे वैराग्य उत्पन्न हुआ। घह चन्दन नामक पुत्रके लिए राज्यका भार सौंपकर आनन्द नामक मुनिराजके समीप पहुँचा और समस्त परिग्रह तथा शरीरसे विमुख हो गया ॥ १५-१६ ॥ शान्त परिणामोंको धारण करनेवाले उसने विपाकसूत्र तक सब अंगोंका अध्ययन किया, चिरकाल तक तपश्चरण किया, तीर्थकर नामकर्मका बन्ध किया, सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीन आराधनाअोंका साधन किया तथा आयुके अन्तमें वह समाधिमरण कर आरण नामक पन्द्रहवें स्वर्गमें विशाल वैभवको धारण करनेवाला इन्द्र हुआ ।।१७-१८॥ वहाँ उसकी आयु बाईस सागरकी थी, तीन हाथ ऊँचा उसका शरीर था, द्रव्य और भाव दोनों ही शुक्ललेश्याएँ थी, ग्यारह माहमें श्वास लेता था, बाईस हजार वर्ष में मानसिक आहार लेकर संतुष्ट रहता था, लक्ष्मीमान् था, मानसिक प्रवीचारसे युक्त था, प्राकाम्य
आदि आठ गुणोंका धारक था, छठवें नरकके पहले-पहले तक व्याप्त रहनेवाले अवधिज्ञानसे देदीप्यमान था, उतनी ही दूर तक उसका बल तथा विक्रिया शक्ति थी और बाह्य-विकारोंसे रहित विशाल अंग सखरूपी सागरका पारगामी था, इस प्रकार उसने अपनी असंख्यात वर्षकी आयको कालकी कलाके समान-एक क्षणके समान बिता दिया ।। १६-२२।। जब उस इन्द्रकी आयु छह माहकी बाकी रह गई और वह पृथिवी पर आनेके लिए उद्यत हुआ तब जम्बूद्वीपके भरत क्षेत्र सम्बन्धी मलय नामक देशमें भद्रपुर नगरका स्वामी इक्ष्वाकुवंशी राजा दृढ़रथ राज्य करता था। उसकी महारानीका नाम सुनन्दा था। कुबेरकी आज्ञासे यक्ष जातिके देवोंने छह मास पहलेसे रनोंके द्वारा सुनन्दाका
१ सन् सुखेप्सु-० । सुसुखेप्सु-ल० । २ विग्रहं विना ख० । ३ सर्वसङ्गाङ्गवैमुख्यं (सर्वपरिमहशरीरविमुखत्वं ) क०, टि० । 'सर्वसंभोगवैमुख्यम् ल०। ४ जीवितस्यान्ते ल०१५ विशालवैभवः । ६ प्राकाम्याद्यष्टधोगुणः ल०। प्राकाम्यद्यष्टधागुणैः खः । ७ कलासंख्य-ल। ८ निशाग्रान्ते ल।
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