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षट्पञ्चाशत्तमं पर्व
शीतलो यस्य सद्धर्मः कर्मधर्माश्वभीषुभिः । सन्तप्तानां शशीवासौ शीतलः शीतलोऽस्तु नः ॥ ७ ॥ पुष्करद्वीपपूर्वार्द्धमन्दरप्राग्विदेहभाक् । सीतापाकटवत्सस्थसुसीमानगराधिपः ॥ २ ॥ भूपतिः पद्मगुल्माल्यो दृष्टोपायचतुष्टयः । पञ्चाङ्गमन्त्रनिर्णीतसन्धिविग्रहतत्त्ववित् ॥ ३ ॥ प्रज्ञावारिपरीषेकवृद्धिमद्राज्य भूरुहः । सप्तप्रकृतिशाखाभिः फलत्यस्य फलत्रयम् ॥ ४ ॥ प्रतापवाडवालोलज्वालामालापरिस्फुरन् । चन्द्रासिधारावार्वाद्विमग्नारातिमहीधरः ॥ ५ ॥ स्वयमुत्पाद्य दैवेन लक्ष्मी बुद्धयोन्यमेन च । विधाय सर्वसम्भोग्यां भोकापि गुणवानसौ ॥ ६ ॥ न्यायार्जितार्थंसन्तर्पितार्थिसार्थे निराकुलम् । पाति तस्मिन् धराचक्रं सर्वर्तु सुखशालिनि ॥ ७ ॥ कोकिलालिकलालापा विलसत्पल्लवाधरा । सौगन्ध्यान्वितमत्चालिकलितोद्गमलोचना ॥ ८ ॥ *वीतनीहारसज्ज्योत्स्नाहासा स्वच्छाम्बराम्बरा । सम्पूर्णचन्द्रबिम्बास्या वकुलामोदवासिता ॥ ९ ॥ मलयानिलनिःश्वासा कर्णिकारतनुच्छविः । वसन्तश्रीरिवायाता तत्सङ्गमसमुत्सुका ॥ १० ॥ अनङ्गस्तद्वलेनैनं पञ्चवाणोऽपि निष्ठुरम् । अविध्यद्वहुवाणो वा को न कालबले बली ॥ ११ ॥
जिनका कहा हुआ समीचीन धर्म, कर्मरूपी सूर्यकी किरणोंसे संतप्त प्राणियोंके लिए चन्द्रमाके समान शीतल है - शान्ति उत्पन्न करनेवाला है वे शीतलनाथ भगवान हम सबके लिए शीतल हों - शान्ति उत्पन्न करनेवाले हों ॥ १ ॥ पुष्करवर द्वीप के पूर्वार्ध भागमें जो मेरु पर्वत है उसकी पूर्व दिशाके विदेह क्षेत्रमें सीतानदीके दक्षिण तट पर एक वत्स नामका देश है। उसके सुसीमा नगरमें पद्मगुल्म नामका राजा राज्य करता था। राजा पद्मगुल्म साम, दान, दण्ड और भेद इन चार उपायोंका ज्ञाता था, सहाय, साधनोपाय, देशविभाग, कालविभाग और विनिपातप्रतीकार इन पाँच अंगोंसे निर्णीत संधि और विग्रह - युद्धके रहस्यको जाननेवाला था । उसका राज्य रूपी वृक्ष बुद्धि-रूपी जलके सिवन से खूब वृद्धिको प्राप्त हो रहा था, तथा स्वामी, मंत्री, किला, खजाना, मित्र, देश और सेना इन सात प्रकृतिरूपी शाखाओंसे विस्तारको प्राप्त होकर धर्म, अर्थ और कामरूपी तीन फलोंको निरन्तर फलता रहता था ।। २-४ ।। वह प्रताप रूपी बड़वानलकी चञ्चल ज्वालाओंके समूहसे अत्यन्त देदीप्यमान था तथा उसने अपने चन्द्रहास-खड्गकी धाराजलके समुद्रमें समस्त शत्रु राजा रूप-पर्वतों को डुबा दिया था ।। ५ ।। उस गुणवान् राजाने दैव, बुद्धि और उद्यमके द्वारा स्वयं लक्ष्मीका उपार्जन कर उसे सर्वसाधारणके द्वारा उपभोग करने योग्य बना दिया था। साथ ही वह स्वयं भी उसका उपभोग करता था ।। ६ ।। न्यायोपार्जित धनके द्वारा याचकोंके समूहको संतुष्ट करनेवाला तथा समस्त ऋतुओंके सुख भोगनेवाला राजा पद्मगुल्म जब इस धराचक्रका - पृथिवीमण्डलका पालन करता था तब उसके समागमकी उत्सुकतासे ही मानो वसन्त ऋतु आ गई थी । कोकिलाओं और भ्रमरोंके मनोहर शब्द ही उसके मनोहर शब्द थे, वृक्षोंके लहलहाते हुए पल्लव ही उसके ओठ थे, सुगन्धिसे एकत्रित हुए मत्त भ्रमरोंसे सहित पुष्प ही उसके नेत्र थे, कुहरासे रहित निर्मल चाँदनी ही उसका हास्य था, स्वच्छ आकाश ही उसका वस्त्र था, सम्पूर्ण चन्द्रमाका मण्डल ही उसका मुख था, मौलिश्रीकी सुगन्धिसे सुवासित मलय समीर ही उसका श्वासोच्छ्वास था और कनेरके फूल ही उसके शरीरकी पीत कान्ति थी ॥ ७-१० ॥ कामदेव यद्यपि शरीररहित था और उसके पास सिर्फ पाँच ही वाण थे, तो भी वह राजा पद्मगुल्मको इस प्रकार निष्ठुरतासे पीड़ा पहुँचाने लगा जैसे कि अनेक वाणोंसहित हो सो ठीक ही है क्योंकि समयका बल पाकर कौन नहीं बलवान् हो
१ कृतत्रर्माश्वभीषुभिः ख० । कर्मघमंशु भीरुभिः ल० । कर्म एव वर्माशुः सूर्यः तस्य श्रभीषवः किरणाः तैः । २ भामिनीद्दार ख०, ल० ।
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