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महापुराणे उत्तरपुराणम् पिण्डितषिद्विलक्षेशः खचतुष्काष्टवाहिमान् । घोषार्याधायिकोपेतो द्विलक्षश्रावकान्वितः ॥५६॥ श्राविकापञ्चलक्षाबः सङ्ग्यातीतमरुद्रणः। तिर्यक्सङ्ख्यातसम्पनो गणैरित्येभिरचिंतः ॥ ५७ ॥ विहृत्य विषयान् प्राप्य सम्मेदं रुद्धयोगकः । मासे भाद्रपदेऽष्टम्यां शुक्ले मूले पराहके ॥ ५८ ॥ सहस्रमुनिभिः सार्द्ध मुक्ति सुविधिराप्तवान् । निलिम्पाः परिनिर्वाणकल्याणान्ते दिवं ययुः ॥ ५९॥
स्रग्धरा दुर्ग मार्ग परेषां सुगममभिगमात्स्वस्य शुद्धं व्यधायः
प्राप्तुं स्वर्गापवर्गों सुविधिमुपशम चेतसा बिभ्रतां तम् । भक्तानां मोक्षलक्ष्मीपतिमतिविकसत्पुष्पदन्तं भदन्तं भास्वन्तं दन्तकान्त्या प्रहसितवदनं पुष्पदन्तं ननामः ॥ ६॥
वसन्ततिलका शान्तं वपुः श्रवणहारि वचश्चरित्रं
सर्वोपकारि तव देव ततो भवन्तम् । संसारमारवमहास्थलरुद्रसान्द्र
छायामहीरुहमिमे सुविधिं श्रयामः ॥ ६१ ॥ योऽजायत क्षितिभृदत्र महादिपद्मः
पश्चादभूद्दिवि चतुर्दशकल्पनाथः । प्रान्ते बभूव भरते सुविधिर्नृपेन्द्र
स्तीर्थेश्वरः स नवमः कुरुताच्छ्रियं वः॥ ६२॥ इत्याचे भगवद्गुणभद्राचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रहे पुष्पदन्तपुराणा
वसति पञ्चपञ्चाशत्तम पर्व ॥ ५५ ॥
अस्सी हजार आर्यिकाओंसे सहित थे, दो लाख श्रावकोंसे युक्त थे, पाँच लाख श्राविकाओंसे पूजित थे, असंख्यात देवों और संख्यात तिर्यश्चोंसे सम्पन्न थे। इस तरह बारह सभाओंसे पूजित भगवान् पुष्पदन्त आर्य देशोंमें बिहार कर सम्मेदशिखर पर पहुँचे और योग निरोध कर भाद्रशुक्ल अष्टमीके दिन मूल नक्षत्रमें सायंकालके समय एक हजार मुनियोंके साथ मोक्षको प्राप्त हो गये । देव आये और उनका निर्वाण-कल्याणक कर स्वर्ग चले गये ॥५२-५६ ॥
जिन्होंने स्वयं चलकर मोक्षका कठिन मार्ग दूसरोंके लिए सरल तथा शुद्ध कर दिया है, जिन्होंने चित्तमें उपशम भावको धारण करनेवाले भक्तोंके लिए स्वर्ग और मोक्षका मार्ग प्राप्त करने की उत्तम विधि बतलाई है, जो मोक्ष-लक्ष्मीके स्वामी हैं, जिनके दाँत खिले हुए पुष्पके समान हैं, जो स्वयं देदीप्यमान हैं और जिनका मुख दाँतोंकी कान्तिसे सुशोभित है ऐसे भगवान् पुष्पदन्तको हम नमस्कार करते हैं ॥६०॥ हे देव ! आपका शरीर शान्त है, वचन कानोंको हरनेवाले हैं, चरित्र सबका उपकार करनेवाला है और आप स्वयं संसाररूपी विशाल रेगिस्तानके बीचमें 'सघनाछायादार वृक्षके समान हैं अतः हम सब आपका ही आश्रय लेते हैं ॥ ६१॥
___ जो पहले महापद्म नामक राजा हुए, फिर स्वर्गमें चौदहवें कल्पके इन्द्र हुए और तदनन्तर भरतक्षेत्रमें महाराज सुविधि नामक नौवें तीर्थंकर हुए ऐसे सुविधिनाथ अथवा पुष्पदन्त हम सबको लक्ष्मी प्रदान करें। ६२ ।।
इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध, भगवद् गुणभद्राचार्य प्रणीत, त्रिषष्टिलक्षण महापुराण संग्रहमें पुष्पदन्त पुराणको पूर्ण करनेवाला पचपनवाँ पर्व समाप्त हुआ।
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