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चतुःपञ्चाशत्तमं पर्व
लेश्या यस्य मृणालनालधवला लाघ्योभयी शोभते
यस्यास्येन्दुरहर्दिवं कुवलयाह्नादं विधत्ते ध्रुवम् ।
यद्वोघोज्ज्वलदर्पणे त्रिसमयं जीवादिकं लक्ष्यते
स श्रीमान् दिशताच्छ्रियं जिनपतिर्नष्टाष्टकर्माष्टकः ॥ २७५ ॥ श्रीवर्मा श्रीधरो देवोऽजितसेनोऽच्युताधिपः । पद्मनाभोऽहमिन्द्रोऽस्मान् पातु चन्द्रप्रभः प्रभुः ॥ २७६ ॥ इत्यार्षे भगवद्गुणभद्राचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रहे चन्द्रप्रभपुराणं परिसमाप्तं चतुःपञ्चाशत्तमं पर्व ॥ ५४ ॥
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करते हुए पाप भयसे हमारी रक्षा करें ॥ २७४ ॥ जिनकी द्रव्य और भाव दोनों ही प्रकारकी लेश्याएँ कमलकी मृणालके समान सफेद तथा प्रशंसनीय सुशोभित हैं, जिनका मुखरूपी चन्द्रमा रात-दिन कुवलय - पृथिवी मण्डल अथवा नील कमलोंके समूहको हर्षित करता रहता है, जिनके ज्ञानरूपी निर्मल दर्पणमें त्रिकालसम्बन्धी जीवाजीवादि पदार्थ दिखाई देते हैं और जिन्होंने अष्ट कर्मोंका समूह नष्ट कर दिया है ऐसे मोक्ष-लक्ष्मी से सम्पन्न चन्द्रप्रभ स्वामी हम सबको लक्ष्मी प्रदान करें ।। २७५ ।। जो पहले श्रीवर्मा हुए, फिर श्रीधर देव हुए, तदनन्तर अजितसेन हुए, तत्पश्चात् अच्युत स्वर्ग के इन्द्र हुए, फिर पद्मनाभ हुए फिर अहमिन्द्र हुए और तदनन्तर अष्टम तीर्थकर हुए ऐसे चन्दप्रभ स्वामी हम सबकी रक्षा करें ॥ २७६ ॥
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध भगवद्गुणभद्राचार्य प्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराण संग्रहमें चन्द्रप्रभ पुराणका वर्णन करनेवाला चौंवनवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥ ५४ ॥
१ लाघ्योभया ल० । ६
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