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चतुःपश्चाशत्तम पर्व
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त्वचो वाचि धर्मस्ते हदि वृत्तिस्तनौ भवेत् । यस्य स त्वाहशो भूत्वा परमानन्दमश्नुते ॥ २५४ ॥ स्वयैवैकेन कर्मारीन् भुवनत्रयविद्विषः । शुक्लध्यानासिना हत्वा मुक्तिसाम्राज्यमजितम् ॥ २५५॥ स्वत्पादपादपोदभूतसान्द्रच्छायां समाश्रिताः । पापार्करोगधर्मोऽग्रदुःखसन्तापदूरगाः ॥ २५६ ॥ सागरोऽनन्तकान्तारं संसारः सर्वदेहिनाम् । त्वन्मताश्रितभव्यानां गोष्पदं नन्दनं वनम् ॥ २५७ ॥ फलं त्रिलोकसाम्राज्यं क्लेशकृचरणस्मृतिः । लोकस्तत्रापि मन्देच्छो न वेति हितमात्मने ॥ २५८ ॥ आधाराधेयभावोऽयमनन्यसशस्तव । अधःस्थं जगदाधेयमाधारस्त्वं तदनिमः ॥ २५९ ॥ वेदकोऽसि न वेद्योऽसि न पाल्योऽस्यसि पालकः। कर्तासि नासि कार्यस्त्वं न पोष्योऽस्यसि पोषकः ॥२६॥ त्वां नमन्नुत्तमः स्तोता गुरुश्च गुणगौरवात् । अनमन् तप्यते पापैरस्तुवन् शप्यते सदा ॥ २६१ ॥ नास्तिकाः पापिनः केचिद् दैष्टिकाच४ हतोद्यमाः। त्वदीयास्त्वास्तिका धाः परत्र विहितोद्यमाः ॥२६२॥ सर्वत्र सर्वदा सर्व सर्वैस्त्वं सार्बसर्ववित् । प्रकाशयति नैवेन्दुर्भानुर्वान्येपु का कथा ॥ २६३ ॥
समृद्धिमान हों, मैं यहीं स्तुति करता हूं ॥ २५३ ॥ जो मनुष्य आपके वचनको अपने वचनोंमें,
आपके धर्मको अपने हृदयमें और आपकी प्रवृत्तिको अपने शरीरमें धारण करता है वह आप जैसा ही होकर परम आनन्दको प्राप्त होता है ॥२५४ ।। हे नाथ! आप अकेलेने ही शुलध्यान रूपी तलवारके द्वारा तीनों लोकोंसे द्वेष रखनेवाले कर्मरूपी शत्रुओंको नष्ट कर मुक्तिका साम्राज्य प्राप्त कर लिया है ।। २५५ ॥ हे प्रभो ! जो आपके चरणरूपी वृक्षसे उत्पन्न हुई सघन छायाका आश्रय लेते हैं वे पापरूपी सूर्यके रोगरूपी घामके तीव्र दुःखरूपी संतापसे दूर रहते हैं । २५६ ॥ हे देव ! यह संसार, समस्त जीवोंके लिए या तो समुद्र है या अनन्त वन है परन्तु जो भव्य आपके मतका आश्रय लेते हैं उनके लिए गायका खुर है अथवा नन्दन वन है ।। २५७ ॥ हे भगवन् ! यद्यपि आपके चरणोंका स्मरण करनेसे कुछ क्लेश अवश्य होता है परन्तु उसका फल तीनों लोकोंका साम्राज्य है। आश्चर्य है कि ये संसारके प्राणी उस महान् फलमें भी मन्द इच्छा रखते हैं इससे जान पड़ता है कि ये अपनी आत्माका हित नहीं जानते ।। २५८ ॥ हे प्रभो! आपका यह आधाराधेय भाव अनन्यसदृश है-सर्वथा अनुपम है क्योंकि नीचे रहनेवाला यह संसार तो आधेय है और उसके ऊपर रहनेवाले आप आधार हैं। भावार्थ-जो चीज नीचे रहती है वह आधार कहलाती है और जो उसके ऊपर रहती है वह आधेय कहलाती है परन्तु आपके आधाराधेय भावकी व्यवस्था इस व्यवस्थासे भिन्न है अतः अनुपम है। दूसरे पक्षमें यह अर्थ है कि आप जगत्के रक्षक हैं अतः आधार हैं और जगत् आपकी रक्षाका विषय है अतः आधेय है ।। २५६ ॥ आप सबको जानते हैं परन्तु आप किसीके द्वारा नहीं जाने जाते, आप सबके रक्षक हैं परन्तु आप किसीके द्वारा रक्षा करने योग्य नहीं हैं, आप सबके करनेवाले हैं परन्तु आप किसीके कार्य नहीं हैं, आप सबके जाननेवाले हैं परन्तु आप किसीके द्वारा जाननेके योग्य नहीं हैं और आप सबका पोषण करने वाले हैं परन्तु आप किसीके द्वारा पोषण किये जानेके योग्य नहीं हैं ।।२६० ॥ जो आपको नमस्कार करता है वह उत्तम हो जाता है, इसी प्रकार जो आपकी स्तुति करता है वह गुणोंके गौरवसे गुरु अथवा श्रेष्ठ हो जाता है इसके विपरीत जो आपको नमस्कार नहीं करता वह पापोंसे संतप्त होता है और जो आपकी स्तुति नहीं करता वह सदा निन्दाको प्राप्त होता है ।। २६१ ।। हे भगवन् ! इस संसारमें कितने ही लोग नास्तिक हैं-परलोककी सत्ता स्वीकृत नहीं करते हैं इसलिए स्वच्छन्द होकर तरह-तरहके पाप करते हैं और कितने ही लोग केवल भाग्यवादी हैं इसीलिए उद्यमहीन होकर अकर्मण्य हो रहे हैं परन्तु आपके भक्त लोग आस्तिक हैं-परलोककी सत्ता स्वीकृत करते हैं इसलिए 'परलोक बिगड़ न जावे' इस भयसे सदा धार्मिक क्रियाएँ करते हैं और परलोकके सुधारके लिए सदा उद्यम करते हैं ॥२६२ ।। सबका हित करनेवाले और सबको जाननेवाले आप सब जगह
ब पदार्थाको प्रकाशित करते हैं। ऐसा प्रकाश न चन्द्रमा कर सकता है और न सूर्य ही,
१त्रलोक्य ल०। २ तदग्रतः ल० । ३ नाप्यते ल०। ४ दुष्टिकाश्च ल०,ख०।
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