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चतुःपञ्चाशत्तमं पर्व
द्वितीयशुध्यानेन घातित्रितयघातकः । जीवस्यैवोपयोगाख्यो गुणः शेषेष्वसम्भवात् ॥ २२७ ॥ घातीति नाम तद्घातादभूदयचतुष्टये । अधातिष्वपि केषाञ्चिदेव तत्र चिलोपनात् ॥ २२८ ॥ परावगाढं सम्यक्त्वं चर्यान्त्यां ज्ञानदर्शने । दानादिपञ्चकं प्राप्य सयोगः सकलो जिनः ॥ २२९ ॥ सर्वज्ञः सर्वलोकेशः सार्वः सर्वैकरक्षकः । सर्वदृक् सर्वदेवेन्द्रवन्द्यः सर्वार्थदेशकः ॥ २३० ॥ चतुस्त्रिंशदतीशेषविशेषविभवोदयः । प्रातिहार्याष्टकव्यक्तीकृततीर्थकरोदयः ॥ २३१ ॥ देवदेवः समस्तेन्द्रमुकुटोढाङ्घ्रिपङ्कजः । स्वप्रभाह्लादिताशेषविश्वो लोकविभूषणः ॥ २३२ ॥ गतिजीवगुणस्थाननयमानादिविस्तृतेः । प्रबोधकः स्थितो व्योस्नि श्रीमान् चन्द्रप्रभो जिनः ॥ २३३ ॥ क्रौर्यधुर्येण शौर्येण 'यदंहः सचितं परम् । सिंहर्हर्तुं स्वजातेर्वा व्यूढं तस्यासनं व्यभात् ॥ २३४ ॥ केवलद्युतिरेवैवं मूर्तिर्जातेव भास्वरा । देहप्रभा दिशो विश्वा भासयन्त्यस्य शोभते ॥ २३५ ॥ २चामरैरामरैरेष प्रभाप्रकटितायतिः । हंसांसधवलैर्गङ्गातरङ्गैरिव सेव्यते ॥ २३६ ॥
ध्वनिरेकोsपि दिव्योsस्य प्रकाशो वांशुमालिनः । द्रष्टृणां सर्वभावानां सश्रोत्राणां प्रकाशकः ॥ २३७॥ त्रिभिः शिवं पदं प्राप्यमस्माभिरिति चावदत् । मोक्षमार्गः पृथग्भूतो भाति छत्रत्रयं विभोः ॥ २३८ ॥ भाति पिण्डीमो भर्तुरशोकः संश्रयाद्रहम् । इत्याविष्कृतरागो वा पल्लवैः प्रसवैरपि ॥ २३९ ॥
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उस समय चार ज्ञानोंसे देदीप्यमान चन्द्रप्रभ भगवान् अत्यन्त सुशोभित हो रहे थे ।। २२६ ॥ बारहवें गुणस्थानके अन्त में उन्होंने द्वितीय शुक्लध्यानके प्रभावसे मोहातिरिक्त तीन घातिया कर्मोंका क्षय कर दिया । उपयोग जीवका ही खास गुण है क्योंकि वह जीवके सिवाय अन्य द्रव्योंमें नहीं पाया जाता। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोह और अन्तराय कर्म जीवके उपयोग गुणका घात करते हैं इसलिए घातिया कहलाते हैं । उन भगवान् के घातिया कर्मोंका नाश हुआ था और अघातिया कर्मों से भी कितनी ही प्रकृतियों का नाश हुआ था । इस प्रकार वे परमावगाढ़ सम्यग्दर्शन, अन्तिम यथाख्यात चारित्र, क्षायिक ज्ञान, दर्शन तथा ज्ञानादि पाँच लब्धियाँ पाकर शरीर सहित सयोगकेवली जिनेन्द्र हो गये ।। २२७–२२६ ॥ उस समय वे सर्वज्ञ थे, समस्त लोकके स्वामी थे, सबका हित करनेवाले थे, सबके एक मात्र रक्षक थे, सर्वदर्शी थे, समस्त इन्द्रोंके द्वारा वन्दनीय थे और समस्त पदार्थोंका उपदेश देनेवाले थे ।। २३० ।। चौंतीस अतिशयोंके द्वारा उनके विशेष वैभवका उदय प्रकट हो रहा था और आठ प्रातिहार्योंके द्वारा तीर्थंकर नामकर्मका उदय व्यक्त हो रहा था ।। २३१ ।। वे देवों के देव थे, उनके चरण-कमलोंको समस्त इन्द्र अपने मुकुटों पर धारण करते थे, अपनी प्रभासे उन्होंने समस्त संसारको आनन्दित किया था, तथा वे समस्त लोकके आभूषण थे ॥ २३२ ॥ गति, जीव, समास, गुणस्थान, नय, प्रमाण आदि के विस्तारका ज्ञान करानेवाले श्रीमान् चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र आकाशमें स्थित थे || २३३ || सिंहोंके द्वारा धारण किया हुआ उनका सिंहासन ऐसा सुशोभित हो रहा था कि सिंह जातिने क्रूरता - प्रधान शूर-वीरताके द्वारा पहले जिस पापका संचय किया था उसे हरनेके लिए मानो उन्होंने भगवान्का सिंहासन उठा रक्खा था ।। २३४ ॥ समस्त दिशाओंको प्रकाशित करती हुई उनके शरीरकी प्रभा ऐसी जान पड़ती थी मानो देदीप्यमान केवलज्ञानकी कान्ति ही तदाकार हो गई हो ।। २३५ ।। हंसोंके कंधोंके समान सफेद देवोंके चामरोंसे जिनकी प्रभाकी दीर्घता प्रकट हो रही है ऐसे भगवान् ऐसे जान पड़ते थे मानो गङ्गानदीकी लहरें ही उनकी सेवा कर रही हों ||२३६ || जिस प्रकार सूर्यका एक ही प्रकाश देखनेवालोंके लिए समस्त पदार्थोंका प्रकाश कर देता है उसी प्रकार भगवान्की एक ही दिव्यध्वनि सुननेवालों के लिए समस्त पदार्थोंका प्रकाश कर देती थी ।। २३७ ।। भगवान्का छत्रत्रय ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप मोक्षमार्ग जुदा-जुदा होकर यह कह रहा हो कि मोक्षकी प्राप्ति हम तीनोंसे ही हो सकती है अन्यसे नहीं ॥ २३८ ॥ लाल-लाल अशोक वृक्ष ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो भगवान्के आश्रय
१ यदहः ग०, ल० । २ चमरै-ल० । ३ द्रष्टृणां सर्वभावानां सगोत्राणां प्रकाशकः ख०, ग० । नराणां सर्वभावानां संश्रोतॄणां प्रकाशकः ल० ।
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