________________
fo
महापुराणे उत्तरपुराणम्
दीक्षालक्ष्म्याः स्वयं प्राप्ता सद्बुद्धिः सिद्धिदायिनी । इति प्रबुद्धतत्वं तं प्रपद्य सुरसंयताः ॥ २१३ ॥ यथोचितमभिष्टुत्य ब्रह्मलोकं पुनर्ययुः । नृपोऽपि वरचन्द्रस्य कृत्वा राज्याभिषेचनम् ॥ २१४॥ विनिःक्रमणकल्याणपूजां प्राप्य सुरेश्वरैः । आरुह्य सुरसन्धार्या शिबिकां विमलाइयात् ॥ २१५ ॥ दिनद्वयोपवासित्वा वने सर्वर्तुकामये । १ पौषे मास्यनुराधायामेकादश्यां महीभुजाम् ॥ २१६ ॥ सहस्रेणाप्य नैर्मन्यं मनः पर्ययमाप्तवान् । "द्वितीये दिवसे तस्मै पुरे नलिननामनि ॥ २१७ ॥ सोमदशो नृपो गौरः प्रदायाहारमुत्तमम् । पुण्यानि नव सम्प्राप्य वसुधारादिपञ्चकम् ॥ २१८ ॥ सुरैस्तद्दानसन्तुष्टैरापितं स्वीचकार सः । धृत्वा व्रतानि सम्पाल्य समितीस्त्यतदण्डकः ॥ २१९ ॥ निगृहीतकषायारिर्वर्द्धमानविशुद्धिभाक् । त्रिगुप्तः शीलसम्पन्नो गुणी प्रोक्कतपोद्वयः ॥ २२० ॥ वस्तुवृत्तिवचोभेदाचैरन्तर्येण भावयत् । दशप्रकारधर्मस्थः षोढाशेषपरीषहः ॥ २२१ ॥ अनित्याशुचिदुःखत्वं स्मरन् कायादिकं मुहुः । गत्वा सर्वत्र माध्यस्थ्यं परमं योगमाश्रितः ॥ २२२ ॥ श्रीन् मासान् जिनकल्पेन नीत्वा दीक्षावनान्तरे । अधस्तान्नागवृक्षस्य स्थित्वा षष्ठोपवासभृत् ॥ २२३ ॥ फाल्गुने कृष्णसप्तम्यामनुराधापराह्न के । प्रागेव निहिताशेषश्रद्धानप्रतिपक्षकः ॥ २२४ ॥ करणत्रयसंयोगात् क्षपक श्रेणिमाश्रितः । स्फुरन्तुरीय चारित्रो द्रव्यभावविकल्पतः ॥ २२५ ॥ अशुक्लध्यानोद्धसदृद्ध्यात्या मोहारातिं निहत्य सः । ४ सावगाढहगर्योऽभाद् विचतुष्कादिभास्करः ॥२२६॥
होनेवाले केवलज्ञानादि गुणोंसे मुझे समृद्ध होना चाहिए ऐसा स्मरण करते हुए वे दूतीके समान सद्बुद्धिके साथ समागमको प्राप्त हुए थे ।। २१२ ।। मोक्ष प्राप्त करानेवाली उनकी सद्बुद्धि अपने आप दीक्षा- लक्ष्मीको प्राप्त हो गई थी । इस प्रकार जिन्होंने आत्मतत्त्वको समझ लिया है ऐसे भगवान् चन्द्रप्रभके समीप लौकान्तिक देव आये और यथायोग्य स्तुति कर ब्रह्मस्वर्गको वापिस चले गये । तदनन्तर महाराज चन्द्रप्रभ भी वरचन्द्र नामक पुत्रका राज्याभिषेक कर देवोंके द्वारा की हुई दीक्षा - कल्याणककी पूजाको प्राप्त हुए और देवोंके द्वारा उठाई हुई विमला नामकी पालकीमें सवार होकर सर्वर्तुक नामक वनमें गये । वहाँ उन्होंने दो दिनके उपवासका नियम लेकर पौष कृष्ण एकादशीके दिन अनुराधा नक्षत्रमें एक हजार राजाओंके साथ निर्मन्थ दीक्षा कर ली । दीक्षा लेते ही उन्हें मन:पर्ययज्ञान प्राप्त हो गया। दूसरे दिन वे चर्याके लिए नलिन नामक नगरमें गये । वहाँ गौर वर्णवाले सोमदत्त राजाने उन्हें नवधा भक्ति पूर्वक उत्तम आहार देकर दानसे संतुष्ट हुए देवोंके द्वारा प्रकटित रत्नवृष्टि आदि पञ्चाश्चर्य प्राप्त किये। भगवान् अहिंसा आदि पाँच महाव्रतोंको धारण करते थे, ईर्या आदि पाँच समितियोंका पालन करते थे, मन वचन कायकी निरर्थक प्रवृत्ति रूप तीन दण्डोंका त्याग करते थे ।। २१३ - २१६ ।। उन्होंने कषायरूपी शत्रुका निग्रह कर दिया था, उनकी विशुद्धता निरन्तर बढ़ती रहती थी, वे तीन गुप्तियोंसे युक्त थे, शील सहित थे, गुणी थे, अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग दोनों तपोंको धारण करते थे, वस्तु वृत्ति और वचन के भेदसे निरन्तर पदार्थका चिन्तन करते थे, उत्तम क्षमा आदि दश धर्मों में स्थित रहते थे, समस्त परिषह सहन करते थे, 'यह शरीरादि पदार्थ अनित्य हैं, अशुचि हैं और दुःख रूप हैं ऐसा बार-बार स्मरण रखते थे तथा समस्त पदार्थोंमें माध्यस्थ्य भाव रखकर परमयोगको प्राप्त हुए थे ।। २२० - २२२ ॥ | इस प्रकार जिन -कल्प-मुद्राके द्वारा तीन माह बिताकर वे दीक्षावनमें नागवृक्षके नीचे वेलाका नियम लेकर स्थित हुए। वह फाल्गुन कृष्ण सप्तमीके सायंकालका समय था और उस दिन अनुराधा नक्षत्रका उदय था । सम्यग्दर्शनको घातनेवाली प्रकृतियोंका तो उन्होंने पहले ही क्षय कर दिया अब अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणरूप तीन परिणामोंके संयोगसे क्षपक श्रेणीको प्राप्त हुए। वहाँ उनके द्रव्य तथा भाव दोनों ही रूपसे चौथा सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र प्रकट हो गया ।। २२३ - २२५ ।। वहाँ उन्होंने प्रथम शुक्लध्यान के प्रभावसे मोहरूपी शत्रुको नष्ट कर दिया जिससे उनका सम्यग्दर्शन अवगाढ सम्यग्दर्शन हो गया ।
१ पौषमास्यनु-ल० । २ द्वितीयदिवसे ल० । ३ धर्मध्यानेद्धसदृद्ध्यात्या ल०, ग०, घ० क० । ४ सावगाहन्त्यार्यो ख० । सावगाढद्दगन्येऽर्यो ल० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org