________________
५६
महापुराणे उत्तरपुराणम्
इत्यन्तस्तत्त्वतो ज्ञात्वा पद्मनाभो हिताहिते । दत्त्वा सुवर्णनाभाय 'प्राभवं बाह्यसम्पदः ॥ १५८ ॥ राजभिर्बहुभिः सार्धं संयमं प्रतिपद्य सः । समाचरंश्चतुर्भेदे प्रसिद्ध मुक्तिसाधने ॥ १५९ ॥ इष्टकारणसम्प्राप्तभावनो नामतीर्थकृत् । स्वीकृत्यैकादशाङ्गाब्धिपारगः परमं तपः ॥ १६० ॥ सिंह: क्रीडिता विधायाबुधदुस्तरम् । कालान्ते सम्यगाराध्य समुत्सृष्टशरीरकः ॥ ९६१ ॥ वैजयन्ते त्रयत्रिंशत्सागरायुरजायत । पूर्वोक्तदेहलेश्यादिविशेषो दिव्यसौख्यभाक् ॥ १६२ ॥ तस्मिन् षण्मासशेषायुष्या गमिष्यति भूतले । द्वीपेऽस्मिन् भारते वर्षे नृपश्चन्द्रपुराधिपः ४ ॥ १६३ ॥ इक्ष्वाकुः काश्यपो वंशगोत्राभ्यामद्भुतोदयः । महासेनो महादेवी लक्ष्मणा स्वगृहाङ्गणे ॥ १६४ ॥ वसुधारां सुरैः प्राप्ता देवीभिः परिवारिता । दिव्यवस्त्रस्त्रगालेपशयनादिसुखोचिता ॥ १६५ ॥ चैत्रस्य कृष्णपञ्चम्यां स्वमान् याममनोहरे । दृष्ट्वा षोडश संतुष्य समुत्थायोदिते रवौ ॥ १६६ ॥ "पुण्य प्रसाधनोपेता स्ववक्त्रार्पितसम्मदा । स्वप्नान् सिंहासनासीनं स्वानवाजीगमत् पतिम् ॥ १६७ ॥ सोऽपि स्वावधिबोधेन तत्फलानि पृथक् पृथक् । राज्ञ्यै निवेदयामास सापि सन्तोषसम्भृता ॥ १६८ ॥ कान्ति लजां धृति कीर्ति बुद्धिं सौभाग्यसम्पदम् । श्रीह्रीष्टत्यादिदेवीषु वर्धयन्तीषु सन्ततम् ॥ १६९ ॥ पौवासितैकदश्यां सा शक्रयोगे सुराचितम् । अहमिन्द्रमतयिभं त्रिबोधमुपपादयत् ॥ १७० ॥ तदैवाभ्येत्य नाकीशो महामन्दरमस्तके । सिंहासनं समारोप्य सुस्नाप्य क्षीरवारिभिः ॥ १७१ ॥
इस प्रकार अन्तरङ्गमें हिताहितका यथार्थ स्वरूप जानकर पद्मनाभने बाह्य सम्पदाओंकी प्रभुता सुवर्णनाभ के लिए दे दी और बहुतसे राजाओंके साथ दीक्षा धारण कर ली। अब वह मोक्षके कारण भूत चारों आराधनाओंका आचरण करने लगा, सोलह कारण - भावनाओंका चिन्तवन करने लगा तथा ग्यारह अंगोंका पारगामी बनकर उसने तीर्थंकर नामकर्मका बन्ध किया। जिसे अज्ञानी जीव नहीं कर सकते ऐसे सिंहनिष्क्रीडित आदि कठिन तप उसने किये और आयुके अन्त:में समाधिमरण-पूर्वक शरीर छोड़ा जिससे वैजयन्त विमानमें तैंतीस सागर की आयुका धारक अहमिन्द्र हुआ । उसके शरीरका प्रमाण तथा लेश्यादिकी विशेषता पहले कहे अनुसार थी । इस तरह वह दिव्य सुखका उपभोग करता हुआ रहता था ।। १५८-१६२ ।
तदनन्तर जब उसकी आयु छहकी बाकी रह गई तब इस जम्बूद्वीपके भरत क्षेत्र में एक चन्द्रपुर नामका नगर था । उसमें इक्ष्वाकुवंशी काश्यपगोत्री तथा आश्चर्यकारी वैभवको धारण करनेवाला महासेन नामका राजा राज्य करता था। उसकी महादेवीका नाम लक्ष्मणा था । लक्ष्मणाने अपने घरके गनमें देवोंके द्वारा बरसाई हुई रत्नोंकी धारा प्राप्त की थी। श्री ही आदि देवियाँ सदा उसे घेरे रहती थीं । देवोपनीत वस्त्र, माला, लेप तथा शय्या आदिके सुखोंका समुचित उपभोग करनेवाली रानीने चैत्रकृष्ण पञ्चमीके दिन पिछली रात्रिमें सोलह स्वप्न देखकर संतोष लाभ किया । सूर्योदयके समय उसने उठकर अच्छे-अच्छे वस्त्राभरण धारण किये तथा प्रसन्नमुख होकर सिंहासन पर बैठे हुए पति से अपने सब स्वप्न निवेदन किये ।। १६३ - १६७ ।। राजा महासेनने भी अवधिज्ञानसे उन स्वप्नोंका फल जानकर रानीके लिए पृथक्-पृथक् बतलाया जिन्हें सुनकर वह बहुत ही हर्षित हुई ॥ १६८ ॥ श्री ही धृति आदि देवियाँ उसकी कान्ति, लज्जा, धैर्य, कीर्ति, बुद्धि और सौभाग्य-सम्पत्तिको सदा बढ़ाती रहती थीं ।। १६६ ।। इस प्रकार कितने ही दिन व्यतीत हो जानेपर उसने पौषकृष्ण एकादशी के दिन शक्रयोग में देव पूजित, अचिन्त्य प्रभाके धारक और तीन ज्ञानसे सम्पन्न उस अहमिन्द्र पुत्रको उत्पन्न किया ।। १७० ।। उसी समय इन्द्रने आकर महामेरुकी शिखर पर विद्यमान सिंहासन पर उक्त जिन - बालकको विराजमान किया, क्षीरसागरके जलसे उनका अभिषेक किया, सब प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित किया, तीन लोकके राज्यकी कण्ठी बाँधी और फिर प्रसन्नता से हजार
१ प्रभावं राज्यसम्पदः ग० । प्राभवं राज्यसंपदः क०, ख०, घ० । २ विधायांबुधदुस्तरम् ल० । ४ चण्डपुराधिपः क०, घ० । ५ पुण्यप्रसाधनोपेतो क०, ३ शेषायुषा क० । ६ स्ववक्त्रार्पितसंभवा क० । ७ पौषे सितैकादश्यन्ते ग० ।
ख०, ग०, घ० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org