________________
चतुःपञ्चाशत्तमं पर्व
विश्रम्भहाससंस्पर्शविनोदैरतिपेशलैः । कामिनीनां कलालापै: 'सविलोलैर्विलोकनैः ॥ १४५ ॥ अनङ्गपूर्वरङ्गस्य पुष्पाञ्जलिनिभैः शुभैः । समप्रेमसमुत्पन्नैः प्रसादं प्राप चेतसः ॥ १४६ ॥ कामकल्पद्रुमोद्भूतं परिपक्कं फलोत्तमम् । रामाप्रेमोपनीतं साउ सीमाऽऽसीत्तस्य निर्वृतेः ॥ १४७ ॥ प्राकनोपात्तपुण्यस्य फलमेतदिति स्फुटम् । प्रबोधयन्नसौ मूढानुयद्दीसिरभूत्सुखी ॥ १४८ ॥ सोऽपि श्रीधरसान्निध्ये बुद्ध्वा धर्म बुधोरामः । संसारमोक्षयाथात्म्यमात्मन्येवमचिन्तयत् ॥ १४९ ॥ यावदौदयको भावस्तावत्संसृतिरात्मनः । स च कर्माणि तत्कर्म तावद्यावत्सकारणम् ॥ १५० ॥ कारणान्यपि पञ्चैव मिथ्यात्वादीनि कर्मणः । मिथ्यात्वे सत्यवश्यं स्यारात्र शेषं चतुष्टयम् ॥ १५१ ॥ असंयमे त्रयं द्वे स्तः प्रमादे योगसञ्ज्ञकम् । कषाये निःकषायस्य योग एव हि बन्धकृत् ॥ १५२ ॥ स्वस्मिन् स्वस्मिन् गुणस्थाने मिथ्यात्वादेविनाशनात् । स्वहेतोस्तत्कृतो बन्धस्तत्र तत्र विनश्यति ॥ १५३ ॥ सदादित्रितयं नंक्ष्यत् पश्चात्तश्च स्वकालतः । आपर्यन्तगुणस्थानात्तत्क्षयात्संसृतेः क्षयः ॥ १५४ ॥ संसारे प्रलयं याते पापे जन्मादिलक्षणे । क्षायिकैरात्मनो भावैरात्मन्यात्मा समेधते ॥ १५५ ॥ इति तत्त्वं जिनोद्दिष्टमज़ानानोऽन्धवच्चिरम् । भ्रान्तः संसारकान्तारे दुर्गे दुःखी" दुरन्तके ॥ १५६ ॥ असंयमादिकं सर्वमुज्झित्वा कर्मकारणम् । शुद्धश्रद्धादिमोक्षाङ्ग पञ्चकं समुपैम्यहम् ॥ १५७ ॥
और पर- राष्ट्रकी नीतिका विचार करता हुआ वह सुख से रहने लगा ॥ १४४ ॥ परस्परके समान प्रेमसे उत्पन्न हुए और कामदेव के पूर्व रङ्गकी शुभ पुष्पाञ्जलिके समान अत्यन्त कोमल स्त्रियोंकी विनय, हँसी, स्पर्श, विनोद, मनोहर बातचीत और चश्चल चितवनोंके द्वारा वह चित्तकी परम प्रसन्नताको प्राप्त होता था ।। १४५ - १४६ ।। कामदेव रूपी कल्पवृक्षसे उत्पन्न हुए, स्त्रियोंके प्रेमसे प्राप्त हुए और पके हुए भोगोपभोग रूपी उत्तम फल ही राजा पद्मनाभके वैराग्यकी सीमा हुए थे अर्थात् इन्हीं भोगोपभोगोंसे उसे वैराग्य उत्पन्न हो गया था ।। १४७ ।। ये सब मोगोपभोग पूर्वभवमें किये हुए पुण्यकर्म फल हैं इस प्रकार मूर्ख मनुष्योंको स्पष्ट रीतिसे बतलाता हुआ वह तेजस्वी पद्मनाभ सुखी हुआ था ॥ १४८ ॥ विद्वानों में श्रेष्ठ पद्मनाभ भी, श्रीधर मुनिके समीप धर्मका स्वरूप जानकर अपने हृदयमें संसार और मोक्षका यथार्थ स्वरूप इस प्रकार विचारने लगा ॥ १४६ ॥ उसने विचार किया कि 'जब तक औदयिक भाव रहता है तब तक आत्माको संसार भ्रमण करना पड़ता है, औदयिक भाव तब तक रहता है जब तक कि कर्म रहते हैं और कर्म तब तक रहते हैं जब तक कि उनके कारण विद्यमान रहते हैं ।। १५० || कर्मके कारण मिध्यात्वादिक पाँच हैं । उनमें - से जहाँ मिथ्यात्व रहता है वहाँ बाकीके चार कारण अवश्य रहते हैं ।। १५१ ।। जहाँ असंयम रहता है वहाँ उसके सिवाय प्रमाद, कंषाय और योग ये तीन कारण रहते हैं । जहाँ प्रमाद रहता है वहाँ उसके सिवाय योग और कषाय ये दो कारण रहते हैं । जहाँ कषाय रहती है वहाँ उसके सिवाय योग कारण रहता है और जहाँ कषायका अभाव है वहाँ सिर्फ योग ही बन्धका कारण रहता है। ॥ १५२ ॥ अपने-अपने गुणस्थानमें मिथ्यात्वादि कारणोंका नाश होनेसे वहाँ उनके निमित्तसे होनेवाला बन्ध भी नष्ट हो जाता है ।। १५३ ॥ पहले सत्ता, बन्ध और उदय नष्ट होते हैं, उनके पञ्चात् चौदहवें गुणस्थान तक अपने-अपने कालके अनुसार कर्म नष्ट होते हैं तथा कर्मोंके नाश होनेसे संसारका नाश हो जाता है ।। १५४ ॥ जो पाप रूप है और जन्म-मरण ही जिसका लक्षण है ऐसे संसारके नष्ट हो जानेपर आत्माके क्षायिक भाव ही शेष रह जाते हैं । उस समय यह आत्मा अपने आपमें उन्हीं क्षायिक भावोंके साथ बढ़ता रहता है ।। १५५ ।। इस प्रकार जिनेन्द्र देवके द्वारा कहे हुए को नहीं जाननेवाला यह प्राणी, जिसका अन्त मिलना अत्यन्त कठिन है ऐसे संसाररूपी दुर्गम वनमें अन्धे के समान चिरकालसे भटक रहा है ।। १५६ ।। अब मैं असंयम आदि कर्मबन्धके समस्त कारणोंको छोड़कर शुद्ध श्रद्धान आदि मोक्षके पाँचों कारणोंको प्राप्त होता हूँ-धारण करता हूँ' ।। १५७ ॥
१ सविलासैर्विलोकनैः ख० । २ निभः ल० । ३ सत्समासीत्तस्य क०, घ० । तत्सोमासीत्तस्य ख० ।
४ योगसंज्ञके ल० । ५ दुःखे ख० ।
Jain Education International
५५
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org