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महापुराणे उत्तरपुराणम्
विधाय जिनबिम्बानि प्रातिहार्यैः सहाष्टभिः । भृङ्गारादिविनिर्दिष्टैः सङ्गतान्यष्टमङ्गलैः ॥ ४८ ॥ प्रतिष्ठाकल्पसम्प्रोक्तैः प्रतिष्ठाप्य क्रियाक्रमैः । कृत्वा महाभिषेकं च जिनसङ्गममङ्गलैः ॥ ४९ ॥ गन्धोदकैः स्वयं देव्या सहैवास्नात्स्तुवन् जिनान् । व्यधादाष्टाह्निकी पूजामैहिकामुत्रिकोदयाम् ॥ ५० ॥ यातैः कतिपयैर्देवी दिनैः स्वमान् व्यलोकत । गजसिंहेन्दुपद्माभिषेकानीषद्विनिद्विता ॥ ५१ ॥ तदैव गर्भसङ्क्रान्तिरभूत्तस्यास्ततः क्रमात् । आलस्यमरुचिस्तन्द्रा जुगुप्सा वा निमित्तिका ॥ ५२ ॥ "अशक्तयोरिवान्योन्यं विजेतुं सुचिरान्मुखम् । कुचयोरादधौ तस्याः कालिमानं दिने दिने ॥ ५३ ॥ योषितां भूषणं लज्जा श्लाघ्यं नान्यद्विभूषणम् । इति स्पष्टयितुं वैषा सर्वचेष्टा स्थिता हिया ॥ ५४ ॥ तस्या भाराक्षमत्वेन भूषणान्युचितान्यपि । दिवस्ताराकुलानीव निशान्ते स्वल्पतां ययुः ॥ ५५ ॥ बाचः परिमिताः स्वल्पवित्तस्येव विभूतयः । चिरं विरम्य श्रव्यत्वानवाभ्भोदावलेरिव ॥ ५६ ॥ कुर्युः कुतूहलोत्पत्तिं वाढमभ्यर्णवर्तिनाम् । एवं तद्गर्भचिह्नानि व्यक्तान्यन्यानि चाभवन् ॥ ५७ ॥ प्रमोदात्प्राप्य राजानं प्रणम्याननसूचितम् । इति चैत्याब्रुवन् कर्णे तन्महत्तरिकास्तदा ॥ ५८ ॥ सरोजं वोदयाद्भानोः कुमुदं वा हिमयुतेः । व्यकसत्तन्मुखाम्भोजं श्रुतगर्भमहोदयात् ॥ ५९ ॥ चन्द्रोदयोम्वयाम्भोधेः कुलस्य तिलकायितः । प्रादुर्भावस्तनूजस्य न प्रतोषाय कस्य वा ॥ ६० ॥ अदृष्टवदनाम्भोजमपत्यं गर्भगं च माम् । एवं प्रतोषयत्येतत् दृष्टवक्त्रं किमुच्यते ॥ ६१ ॥ मत्त्वेति ताभ्यो दवेष्टं स्वाप्तैः कतिपयैर्वृतः । महादेवीगृहं गत्वा द्विगुणीभूतसम्मदः ॥ ६२ ॥ उपदेश से पाँच वर्णके अमूल्य रत्नोंसे मिले सुवर्णकी जिन-प्रतिमाएँ बनवाईं। उन्हें आठ प्रातिहार्यो तथा भृङ्गार आदि आठ मङ्गल द्रव्यसे युक्त किया, प्रतिष्ठाशास्त्रमें कही हुई क्रियाओं के क्रमसे उनकी प्रतिष्ठा कराई, महाभिषेक किया, जिनेन्द्र भगवान् के संसर्गसे मङ्गल रूप हुए गन्धोदकसे रानीके साथ स्वयं स्नान किया, जिनेन्द्र भगवान्की स्तुति की तथा इस लोक और परलोक सम्बन्धी अभ्युदयको देनेवाली आष्टाह्निकी पूजा की ।। ४७-५० ।। इस प्रकार कुछ दिन व्यतीत होने पर कुछ कुछ जागती हुई रानीने हाथी सिंह चन्द्रमा और लक्ष्मीका अभिषेक ये चार स्वप्न देखे ॥ ५१ ॥ उसी समय उसके गर्भ धारण हुआ तथा क्रमसे आलस्य आने लगा, अरुचि होने लगी, तन्द्रा आने लगी और बिना कारण ही ग्लानि होने लगी ।। ५२ ।। उसके दोनों स्तन चिरकाल व्यतीत हो जाने पर भी परस्पर एक दूसरेको जीतनेमें समर्थ नहीं हो सके थे अतः दोनोंके मुख प्रतिदिन कालिमाको धारण कर रहे थे ॥ ५३ ॥ 'स्त्रियोंके लिये लज्जा ही प्रशंसनीय आभूषण है अन्य आभूषण नहीं यह स्पष्ट करनेके लिए ही मानो उसकी समस्त चेष्टाएँ लज्जासे सहित हो गई थीं ॥ ५४ ॥ जिस प्रकार रात्र अन्त भागमें आकाशके ताराओं के समूह अल्प रह जाते हैं उसी प्रकार भार धारण करनेमें समर्थ नहीं होनेसे उसके योग्य आभूषण भी अल्प रह गये थे - विरल हो गये थे ।। ५५ ।। जिस प्रकार अल्प धनवाले मनुष्यकी विभूतियाँ परिमित रहती हैं उसी प्रकार उसके वचन भी परिमित थे और नई मेघमाला के शब्द के समान रुक-रुक कर बहुत देर बाद सुनाई देते थे || ५६ || इस प्रकार उसके गर्भके चिह्न निकटवर्ती मनुष्योंके लिए कुतूहल उत्पन्न कर रहे थे । वे चिह्न कुछ प्रकट थे और कुछ अप्रकट थे ।। ५७ ।। किसी एक दिन रानीकी प्रधान दासियोंने हर्षसे राजाके पास जाकर और प्रणाम कर उनके कानमें यह समाचार कहा । यद्यपि यह समाचार दासियोंके मुखकी प्रसन्नता से पहले ही सूचित हो गया था तो भी उन्होंने कहा था ॥ ५८ ॥ गर्भ धारणका समाचार सुनकर राजाका मुख-कमल ऐसा विकसित हो गया जैसा कि सूर्योदयसे कमल और चन्द्रोदयसे कुमुद विकसित हो जाता है ॥ ५६ ॥ जो वंशरूपी समुद्रको वृद्धिङ्गत करनेके लिए चन्द्रोदयके समान है अथवा कुलको अलंकृत करनेके लिए तिलकके समान है ऐसा पुत्रका प्रादुर्भाव किसके संतोष के लिए नहीं होता ? ।। ६० ।। जिसका मुखकमल अभी देखनेको नहीं मिला है, केवल गर्भ में ही स्थित है ऐसा भी जब मुझे इस प्रकार संतुष्ट कर रहा है तब मुख दिखाने पर कितना संतुष्ट करेगा इस बातका क्या कहना है ॥ ६१ ॥ ऐसा मान कर राजाने उन दासियोंके लिये १ श्रासक्तयोः क०, घ० । २ नवाम्भोदावलीमिव ल० ।
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