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चतुःपचाशत्तमं पर्व
सरसा शङ्खचक्रादि द्वात्रिंशलक्षणान्वितम् । शङ्खेन चक्रिणं पूर्णकुम्भाज्ज्ञात्वा निधीशिनम् ॥ ९१ ॥ तुष्टा कतिपयैर्मासैस्तं श्रीधरमजीजनत् । व्यधादजितसेनाख्यां राजास्य जितविद्विषः ॥ ९२ ॥ तेन तेजस्विना राजा सदाभाद् भास्करेण वा । दिवसो विरजास्तादृक् तनूजः 'कुलभूषणम् ॥ ९३ ॥ स्वयम्प्रभाख्यतीर्थेशमशोकवनमागतम् । परेद्युः सपरीवारः सम्प्राप्याभ्यर्च्य सन्नतः ॥ ९४ ॥
श्रुत्वा धर्म सतां त्याज्यं राज्यं निर्जितशत्रवे । प्रदायाजितसेनाय संयम्यासीत्स केवली ॥ ९५ ॥ राजलक्ष्म्या कुमारोऽपि रक्तया स वशीकृतः । प्रौढ एव युवा कामं मुख्यं सौख्यमुपेयिवान् ॥ ९६ ॥ तत्पुण्यपरिपाकेन चक्ररत्नादि चक्रिणः । यद्यरातत्समुत्पन्नं चेतनेतरभेदकम् ॥ ९७ ॥ चक्रमाक्रान्तदिक्चक्रमस्य तस्योद्भवेऽभवत् । पुनर्दिग्विजयो जेतुः पुरबाह्यविहारवत् ॥ ९८ ॥ नासुखोऽनेन कोऽप्यासीन परिग्रहमूर्च्छना । षट्खण्डाधीशिनोऽप्यस्य पुण्यं पुण्यानुबन्धि यत् ॥ ९९ ॥ दुःखं स्वकर्मपाकेन सुखं तदनुपालनात् । प्रजानां तस्य साम्राज्ये तत्ताभिः सोऽभिनन्द्यते ॥ १०० ॥ देवविद्याधराधीशमुकुटाप्रेषु सयुतीन् । विच्छायीकृत्य रत्नांशूंस्तदाज्ञैवोच्छिखा बभौ ॥ १०१ ॥ नित्योदयस्य चेन्न स्यात् पद्मानन्दकृतो बलम् । चण्डद्युतेः कथं पाति शक्रोऽध्यक्षः स्वयं दिशम् ॥ १०२ ॥ २ विधीर्वेधा न चेदमिं स्थापयेद्रक्षितु दिशम् । स्वयोनिदाहिना कोऽपि क्वचित् केनापि रक्षितः ॥१०३॥ पालको मारको वेति नान्तकं सर्वभक्षिणम् । किं वेत्ति वेधास्तं पातु पापिनं परिकल्पयन् ॥ १०४ ॥
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देखनेसे शंख-चक्र आदि बत्तीस लक्षणोंसे सहित होगा, शंख देखनेसे चक्रवर्ती होगा और पूर्ण कलश देखनेसे निधियोंका स्वामी होगा ॥ ६६-६१ ॥ स्वप्नोंका उक्त प्रकार फल जानकर रानी बहुत ही संतुष्ट हुई । तदनन्तर कुछ माह बाद उसने पूर्वोक्त श्रीधरदेवको उत्पन्न किया । राजाने शत्रुओंको जीतनेवाले इस पुत्रका अजितसेन नाम रक्खा || १२ || राजा उस तेजस्वी पुत्रसे ऐसा सुशोभित होता था जैसा कि धूलिरहित दिन सूर्य से सुशोभित होता है । यथार्थ में ऐसा पुत्र ही कुलका आभूषण होता है ।। ६३ ।। दूसरे दिन स्वयंप्रभ नामक तीर्थंकर अशोक वनमें आये । राजाने परिवार के साथ जाकर उनकी पूजा की, 'स्तुति की, धर्मोपदेश सुना और सज्जनोंके छोड़ने योग्य राज्य शत्रुओं को जीतनेवाले अजितसेन पुत्रके लिए देकर संयम धारण कर लिया तथा स्वयं केवलज्ञानी बन गया ।। ६४-६५ ।। इधर अनुरागसे भरी हुई राज्य लक्ष्मीने कुमार अजित सेनको अपने वश कर लिया जिससे वह युवावस्था में ही प्रौढ़की तरह मुख्य मुखोंका अनुभव करने लगा ।। ६६ ।। उसके पुण्य कर्म के उदयसे चकवर्ती के चक्ररत्न आदि जो-जो चेतन-अचेतन सामग्री उत्पन्न होती है वह सब कर उत्पन्न हो गई ।। ६७ ।। उसके समस्त दिशाओंके समूहको जीतनेवाला चक्ररत्न प्रकट हुआ। चक्ररन्नके प्रकट होते ही उस विजयीके लिए दिग्विजय करना नगरके बाहर घूमने के समान सरल हो गया ॥ ६८ ॥ इस चक्रवर्ती के कारण कोई भी दुःखी नहीं था और यद्यपि यह छह खण्डका स्वामी था फिर भी परिग्रहमें। इसकी आसक्ति नहीं थी । यथार्थमं पुण्य तो वही हैं जो पुण्य कर्मका बन्ध करनेवाला हो ।। ६६ ।। उसके साम्राज्य में प्रजाको यदि दुःख था तो अपने अशुभकर्मादयसे था और सुख था तो उस राजाके द्वारा सम्यक् रक्षा होनेसे था । यही कारण था कि प्रजा उसकी वन्दना करती थी ।। १०० ।। देव और विद्याधर राजाओंके मुकुटों के अग्रभागपर चमकने वाले रत्नोंकी किरणोंको निष्प्रभ बनाकर उसकी उन्नत आज्ञा ही सुशोभित होती थी ।। १०१ ।। यदि निरन्तर उदय रहने वाले और कमलोंको आनन्दित करने वाले सूर्यका बल प्राप्त नहीं होता तो इन्द्र स्वयं अधिपति हो कर भी अपनी दिशाकी रक्षा कैसे करता ! ।। १०२ ।। विधाता अवश्य ही बुद्धि-हीन है क्योंकि यदि वह बुद्धिहीन नहीं होता तो आग्नेय दिशाकी रक्षा के लिए अभिको क्यों नियुक्त करता ? भला, जो अपने जन्मदाताको जलाने वाला है उससे भी क्या कहीं किसीकी रक्षा हुई हैं ? ।। १०३ ।। क्या विधाता यह नहीं जानता था कि यमराज पालक हैं या मारक ? फिर भी उसने उसी सर्व
१ कुलभूषणः क०, घ० । २ विधिवेधा ग०, ल०, म० ।
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